ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 14
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यो वा॑मुरु॒व्यच॑स्तमं॒ चिके॑तति नृ॒पाय्य॑म् । व॒र्तिर॑श्विना॒ परि॑ यातमस्म॒यू ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । उ॒रु॒व्यचः॑ऽतमम् । चिके॑तति । नृ॒ऽपाय्य॑म् । व॒र्तिः । अ॒श्वि॒ना॒ । परि॑ । या॒त॒म् । अ॒स्म॒यू इत्य॑स्म॒ऽयू ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वामुरुव्यचस्तमं चिकेतति नृपाय्यम् । वर्तिरश्विना परि यातमस्मयू ॥
स्वर रहित पद पाठयः । वाम् । उरुव्यचःऽतमम् । चिकेतति । नृऽपाय्यम् । वर्तिः । अश्विना । परि । यातम् । अस्मयू इत्यस्मऽयू ॥ ८.२६.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, lovers and benefactors of ours, one who reserves and assigns a spacious hall comfortably good for distinguished congregations of yajna in your honour, you oblige and visit his home in recognition.
मराठी (1)
भावार्थ
जे कवी व विद्वान इत्यादी काव्य व शास्त्र रचतात ते राज्याकडून पूजनीय व पोषणीय असतात. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
यो जनः । उरुव्यचस्तमम्=बहुयशस्करम् । नृपाय्यम्=मनुष्यग्रहणीयं स्तोत्रम् । वाम्=युष्मदर्थम् । चिकेतति=जानाति=करोतीत्यर्थः । हे अश्विना=हे अश्विनौ । तस्य । वर्त्तिः=गृहम् । अस्मयू=अस्मान् कामयमानौ । युवाम् । परियातम्=प्रतिगच्छतम् ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी की अनुवृत्ति आती है ।
पदार्थ
(यः) जो भक्तजन (उरुव्यचस्तमम्) बहुविस्तृत और बहुयशस्कर (नृपाय्यम्) मनुष्यग्रहणयोग्य स्तोत्र को (वाम्) आप लोगों के लिये (चिकेतति) जानता है, (अश्विना) हे अश्विद्वय (वर्तिः) उसके गृह को (अस्मयू) मनुष्यमात्र को चाहनेवाले आप (परियातम्) जाकर भूषित कीजिये ॥१४ ॥
भावार्थ
जो कवि और विद्वान् आदि काव्य और शास्त्र रचें, वे राज्य की ओर से पूजनीय और पोषणीय हैं ॥१४ ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) सूर्य चन्द्रवत् तेजस्वी पुरुषो ! ( यः ) जो ( वाम् ) आप दोनों के ( नृ-पाय्यम् ) मनुष्यों के पालक और नायक जनों से रक्षा करने योग्य ( उरु व्यचसम् ) अति अधिक व्यापक ( वर्त्तिः ) व्यवहार को ( चिकेतति ) जानता है ( अस्मयू ) हमें चाहने वाले आप दोनों उसको ( परि यातम् ) प्राप्त होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
अश्विनीदेवों का सोमपान
पदार्थ
[१] (यः) = जो भी (उरुव्यचस्तमम्) = अतिशयेन शक्तियों के विस्तारवाले, (नृपाय्यम्) = उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणापानों से (पातव्य) = सोम को [वीर्य शक्ति को] (वाम्) = आपके लिये देना चिकेतति जानता है, अर्थात् जो आपकी साधना के द्वारा सोम को शरीर में ही सुरक्षित करना जानता है। हे प्राणापानो! (अस्मयू) = हमारे हित की कामनावाले आप उस पुरुष के (वर्तिः) = इस शरीर गृह को (परियातम्) = प्राप्त होवो। [२] जो व्यक्ति यह समझता है कि सोमरक्षण द्वारा अधिक से अधिक शक्तियों का विस्तार होगा तथा जो यह जानता है कि प्राणसाधना से ही सोम का शरीर में रक्षण होगा यह अवश्य प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है। यही प्राणापान का हमारे शरीर गृह में प्राप्त होना है। इससे सोम शरीर में ही सुरक्षित होता है। यही अश्विनी देवों का सोमपान है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे हित की कामनावाले प्राणापान हमारे शरीर गृह में प्राप्त हों। हम इनके पूजन के द्वारा सोम को शरीर में ही सुरक्षित करनेवाले बनें। शरीर में सुरक्षित सोम सब शक्तियों के विस्तार का कारण बने।
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