ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 18
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त स्या श्वे॑त॒याव॑री॒ वाहि॑ष्ठा वां न॒दीना॑म् । सिन्धु॒र्हिर॑ण्यवर्तनिः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्या । श्वे॒त॒ऽयाव॑री । वाहि॑ष्ठा । वा॒म् । न॒दीना॑म् । सिन्धुः॑ । हिर॑ण्यऽवर्तनिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्या श्वेतयावरी वाहिष्ठा वां नदीनाम् । सिन्धुर्हिरण्यवर्तनिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । स्या । श्वेतऽयावरी । वाहिष्ठा । वाम् । नदीनाम् । सिन्धुः । हिरण्यऽवर्तनिः ॥ ८.२६.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
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मराठी (1)
भावार्थ
गुणवान, शीलवान राजाची प्रशंसा सर्वांनी करावी, करवावी. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
राजा कीदृशो भवेदिति दर्शयति ।
पदार्थः
उत=अपि च । नदीनां मध्ये । स्या=सा । श्वेतयावरी− श्वेतया=श्वेतज्ञानजलेन यातीति श्वेतयावरी=बुद्धिः । वाम्=युवयोः । वाहिष्ठा=अतिशयेन यशोवोढ्री । पुनः । हिरण्यवर्तनिः=कनकमार्गः । सिन्धुः=स्यन्दनशीलो विवेकोऽपि । युवां स्तौति ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा कैसे हों, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(उत) और भी (नदीनाम्) इन्द्रियरूप नदियों के मध्य (स्या श्वेतयावरी) वह बुद्धि, जो सात्त्विक भाव को प्रकाश करती है और जिसमें किञ्चिन्मात्र कलङ्क नहीं है, (वाम्+वाहिष्ठा) आप के यशों को प्रजाओं में पहुँचाया करती है और (हिरण्यवर्तनिः+सिन्धुः) शोभनमार्गगामी स्यन्दनशील विवेक भी तुम्हारा ही गुणगान करता है ॥१८ ॥
भावार्थ
गुणवान् शीलवान् राजा की प्रशंसा सब करें करावें ॥१८ ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( श्वेतयावरी नदीनां वाहिष्ठा ) नदियों में से जिस प्रकार हिमाच्छादित पर्वत से चलने वाली नदी अति वेग से जाने वाली होती है, उसी प्रकार ( नदीनां ) उपदेश देने वाली वाणियों में से (उत ) भी ( स्या ) वह, सब दुःखों को काटने वाली और ( श्वेत-यावरी ) श्वेत, शुक्ल,विशुद्ध प्रभु से आने वा उस तक पहुंचा देने वाली वेदवाणी ही ( वां वाहिष्ठा ) तुम को अतिशय सुख देने और उद्देश्य तक पहुंचा देने में सर्वश्रेष्ठ है। ( हिरण्य-वर्त्तनि: सिन्धुः ) जिस प्रकार हिरण्य अर्थात् लोह के बने मार्ग पर चलने वाला रथ वेग से जाने वाला तुम्हें उद्देश्य तक अच्छी प्रकार पहुंचाने का उत्तम सवारी होता है उसी प्रकार ( हिरण्य-वर्त्तनि: ) हित रमणीय, व्यवहारवान् ( सिन्धुः ) समुद्रवत् गम्भीर पुरुष ही ( वां वाहिष्ठः ) तुम दोनों को उद्देश्य तक पहुंचाने में समर्थ होता है। (२) उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! ( वां ) तुम दोनों में से (श्वेत-यावरी) सर्वोत्तम विशुद्ध ज्ञानमार्ग वा सदाचार मार्ग से जाने वाली स्त्री ( नदीनां वाहिष्ठा ) सर्वश्रेष्ठ समृद्धियों को लाने वाली होती है और तुम में से जो पुरुष ( हिरण्यवर्त्तनि: ) हित, रमणीय व्यवहार मार्ग से चलता, सुवर्णादि का व्यवहार-व्यापार करता है वह पुरुष ( सिन्धुः ) सम्पदाओं को बांधने और धारण करने वाला होता है।
टिप्पणी
सिनाति दधाति च । षिञ् बन्धने।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधक पुरुष व स्त्री
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (उत) = और निश्चय से (स्या) = वह स्त्री (वाम्) = आपकी है, आपकी उपासना करनेवाली है जो (श्वेत या वरी) = शुद्ध मार्ग से गति करनेवाली है और (नदीनाम्) = समृद्धियों की (वाहिष्ठा) = वोढ़तमा बनती है। प्राणसाधिका स्त्री का जीवन शुद्ध व समृद्ध बनता है। [२] प्राणसाधक पुरुष, हे प्राणापानो ! जो पुरुष आपकी साधना करता है, वह (सिन्धुः) = [सिनाति दधाति च] शक्ति को अपने में बाँधनेवाला होता है और इस प्रकार अपना धारण करनेवाला बनता है। यह (हिरण्यवर्तनिः) = ज्योतिर्मय मार्गवाला होता है। स्वाध्याय द्वारा अपनी ज्ञान-ज्योति को बढ़ानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से 'शुद्धता, ऐश्वर्य, शक्ति व ज्योति' प्राप्त होती है।
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