ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ता वा॑म॒द्य ह॑वामहे ह॒व्येभि॑र्वाजिनीवसू । पू॒र्वीरि॒ष इ॒षय॑न्ता॒वति॑ क्ष॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठता । वा॒म् । अ॒द्य । ह॒वा॒म॒हे॒ । ह॒व्येभिः॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । पू॒र्वीः । इ॒षः । इ॒षय॑न्तौ । अति॑ । क्ष॒पः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वामद्य हवामहे हव्येभिर्वाजिनीवसू । पूर्वीरिष इषयन्तावति क्षपः ॥
स्वर रहित पद पाठता । वाम् । अद्य । हवामहे । हव्येभिः । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । पूर्वीः । इषः । इषयन्तौ । अति । क्षपः ॥ ८.२६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, lovers of food and energy and total well being of a life of universal values, harbingers of new victories in the advancement of power and prosperity, at this hour of the dawn when the night is gone, we invoke you with offers of the sweetest fragrances of homage and yajnic service.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने प्रजेच्या हितासाठी पुष्कळ धन एकत्रित करून ठेवावे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
राजकर्माण्याह ।
पदार्थः
हे वाजिनीवसू=हे वर्षणशीलधनवन्तौ ! हे विज्ञानधनवन्तौ ! ता+वाम्=तौ युवाम् । अद्य=अस्मिन् दिने । अति+क्षपः=क्षपाया रात्रेः अतिक्रमे । हव्येभिः=हविर्लक्षणैः स्तोत्रैः सह । हवामहे । कीदृशौ । पूर्वीः=बह्वीः । इषः=अन्नानि । इषयन्तौ=इच्छन्तौ ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
राजकर्म कहते हैं ।
पदार्थ
(वाजिनीवसू) हे अन्नादि परिपूर्ण धनवाले राजन् तथा मन्त्रिदल ! (ता+वाम्) उन आप सबको (अद्य) आज (अति+क्षपः) रात्रि के बीतने के पश्चात् अर्थात् प्रातःकाल (हवामहे) आदर के साथ बुलाते हैं (हव्येभिः) स्तुतियों के द्वारा आपका सत्कार करते हैं, आप सब (पूर्वीः+इषः) बहुत से धनों को (इषयन्तौ) इकट्ठा करने के लिये इच्छा करें ॥३ ॥
भावार्थ
राजा को उचित है कि प्रजा के हित के लिये बहुत सा धन एकत्रित कर रक्खें ॥३ ॥
विषय
राजा-सचिव
भावार्थ
हे ( वाजिनी-वसू ) ऐश्वर्ययुक्त भूमि, ज्ञानयुक्त विद्या और बलयुक्त सेना को बसाने, बसने और उनको धनवत् पालने वाले राजा प्रजा जनो ! ( पूर्वीः ) पूर्व की, नाना, वा पूर्ण, राज्यादि के पालक ( इषः ) सेना और नाना उत्तम अभिलाषाओं और पूर्ण अभिलाषा योग्य अन्नादि समृद्धियों को ( इषयन्तौ ) चाहते हुए ( ता वाम् ) उन आप दोनों का ( अति क्षपः ) रात्रि व्यतीत कर प्रातः, वा नाशकारिणी, शत्रु सेनाओं को पार करके बाद ( हव्येभिः ) उत्तम अन्नों और वचनों से ( हवामहे ) सत्कार करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
इषः इषयन्तौ [अश्विनौ]
पदार्थ
[१] हे (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धनोंवाले प्राणापानो! (ता वाम्) = उन आपको (अद्य) = आज (हव्येभिः) = हव्य पदार्थों के साथ (हवामहे =) हम पुकारते हैं । प्राणसाधना के साथ हव्य पदार्थों का सेवन आवश्यक है। आराधित प्राणापान हमारे लिये शक्तिरूप धनों को प्राप्त कराते हैं । [२] उन आपको हम पुकारते हैं, जो आप (अतिक्षप:) = [ क्षपायाः अति क्रमे] अज्ञान रात्रि के समाप्त होने पर (पूर्वी:) = हमारा पालन व पूरण करनेवाली (इषः) = प्रभु प्रेरणाओं को (इषयन्तौ) = हमारे लिये प्रेरित करते हो, प्राणसाधना से अज्ञानान्धकार का विनाश होता है। हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणायें सुनाई पड़ती हैं। ये प्रेरणायें हमारा पालन व पूरण करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना के साथ यज्ञिय सात्त्विक आहार का ही सेवन करना चाहिये। ये प्राणापान अज्ञानान्धकार का ध्वंस करके हमें प्रभु प्रेरणा के सुनने के योग्य बनाते हैं, ये प्रेरणायें ही हमारा पालन व पूरण करती हैं।
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