ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 19
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स्मदे॒तया॑ सुकी॒र्त्याश्वि॑ना श्वे॒तया॑ धि॒या । वहे॑थे शुभ्रयावाना ॥
स्वर सहित पद पाठस्मत् । ए॒तया॑ । सु॒ऽकी॒र्त्या । अश्वि॑ना । श्वे॒तया॑ । धि॒या । वहे॑थे॒ इति॑ । शु॒भ्र॒ऽया॒वा॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्मदेतया सुकीर्त्याश्विना श्वेतया धिया । वहेथे शुभ्रयावाना ॥
स्वर रहित पद पाठस्मत् । एतया । सुऽकीर्त्या । अश्विना । श्वेतया । धिया । वहेथे इति । शुभ्रऽयावाना ॥ ८.२६.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
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मराठी (1)
भावार्थ
ज्याची कीर्ती शुभ असेल, ज्याची बुद्धी पवित्र असेल व प्रजेचा भार वाहण्यात धुरंधर असेल असा राजा असावा. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
राजा कीदृशो भवेदिति दर्शयति ।
पदार्थः
हे शुभ्रयावाना=शोभनगमनौ । अश्विना=अश्विनौ । एतया सुकीर्त्या सह । युवाम् । स्मत्=शोभनम् । आगच्छतम् । श्वेतया=शुक्लया । धिया=कर्मणा सह । वहेथे=प्रजानां धुरं वहतम् ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा कैसा हो, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(शुभ्रयावाना) जिनका गमन शुद्ध हिंसारहित और प्रजाओं में उपद्रव न मचानेवाला हो, ऐसे (अश्विना) राजा और मन्त्रिदल (एतया+सुकीर्त्या) इस सांसारिक सुकीर्ति से युक्त हों (स्मत्) और वे शोभन रीति से प्रजाओं के क्लेश की जिज्ञासा के लिये इधर-उधर यात्रा करें और (श्वेतया+धिया) शुद्ध बुद्धि से प्रजाओं का भार (वहेथे) उठावें ॥१९ ॥
भावार्थ
जो शुभ कीर्तियों से युक्त हों, जिनकी बुद्धि विमल हो और प्रजाओं के भारवहन में धुरन्धर हों, वे राजा हैं ॥१९ ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
पूर्व मन्त्र में कहे 'श्वेतयावरी' को और स्पष्ट करते हैं। हे (शुभ्र-यावाना ) शुभ्र, शुद्ध, शोभायुक्त, शिष्टसम्मत पवित्र मार्ग से जाने वाले ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( एतया ) इस (श्वेतया) निर्दोष कलंकरहित ( सु-कीर्त्या ) उत्तम कीर्ति युक्त, ( धिया ) धी, वाणी, ज्ञानोपदेश, सन्मति और सत् कर्म, शक्ति से ( स्मत् ) उत्तम २ फलों को ( वहेथे ) प्राप्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सुकीर्ति, सुबुद्धि व सुशीलता
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (एतया सुकीर्त्या) = [चित्त = रत] विविध रंगोंवाली, अर्थात् नाना उत्तम कर्मों से विविध कार्यक्षेत्रों में प्राप्त होनेवाली, उत्तम कीर्ति से तथा श्वेतया निर्मल वासनाओं से अभावृत (धिया) = बुद्धि से (स्मत्) = [सुमत् शोभनम् ] बड़ी शोभा के साथ वहेथे हमें जीवनयात्रा में ले चलते हो। प्राणसाधना के द्वारा बुद्धि की तीव्रता व हृदय की निर्मलता के कारण सब कार्य उत्तम होते हैं। परिणामतः जीवन बड़ा यशस्वी होता है। [२] हे प्राणापानो! आप (शुभ्रयावाना) = जीवन में हमें बड़े शुभ्र [उज्वल] मार्ग से ले चलते हो, हमारे शील को बड़ा शोभन बना देते हो।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से 'सुकीर्ति, सुबुद्धि व सुशीलता' की प्राप्ति होती है।
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