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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 22
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः देवता - वायु: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वष्टु॒र्जामा॑तरं व॒यमीशा॑नं रा॒य ई॑महे । सु॒ताव॑न्तो वा॒युं द्यु॒म्ना जना॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टुः॑ । जामा॑तरम् । व॒यम् । ईशा॑नम् । रा॒यः । ई॒म॒हे॒ । सु॒तऽव॑न्तः । वा॒युम् । द्यु॒म्ना । जना॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टुर्जामातरं वयमीशानं राय ईमहे । सुतावन्तो वायुं द्युम्ना जनासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टुः । जामातरम् । वयम् । ईशानम् । रायः । ईमहे । सुतऽवन्तः । वायुम् । द्युम्ना । जनासः ॥ ८.२६.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 22
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the achievement of wealth, honour and excellence, we, the people dedicated to yajna and the soma of life, adore Vayu, ruler of the world of existence and protector and refiner of things made by the universal maker.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ज्या उपायांनी देश समृद्ध होईल त्या त्याद्वारे विद्वानांकडून व राजसभेकडून संमती घेऊन त्यांना सेनानायकानी कार्य करण्यास उद्युक्त करावे. ॥२२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्य कर्त्तव्यमाह ।

    पदार्थः

    सुतावन्तः=शोभनकर्माणः । इमे । जनासः=जना वयम् । त्वष्टुर्जामातरम् । ईशानम्=शासकम् । वायुम् । रायः=धनानि । ईमहे=याचामहे । तेन दत्तेन । द्युम्ना=धनेन । धनवन्तः स्याम ॥२२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसका कर्त्तव्य दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (सुतावन्तः) सदा शोभनकर्म में निरत (जनासः+वयम्) हम सब जन (त्वष्टुः+जामातरम्+ईशानम्) सूक्ष्म कार्य्य के निर्माता और प्रजाओं पर शासक (वायुम्+रायः+ईमहे) सेनानायक से विविध अभ्युदयों की कामना करते हैं और (द्युम्ना) उनकी सहायता से धन, जन, सुयश और धर्म से युक्त होवें ॥२२ ॥

    भावार्थ

    जिन-२ उपायों से देश समृद्ध हो, विद्वानों से और राजसभा से सम्मति लेकर उनको सेनानायक कार्य्य में लावें ॥२२ ॥

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    विषय

    भावी जामाता के प्रति आदर।

    भावार्थ

    ( वयं ) हम ( घुम्नाः ) धन, यश से सम्पन्न ( सुतवन्तः, सुतावन्तः ) पुत्र पुत्री वाले मनुष्य, ( त्वष्टु: ) समस्त कार्यसाधक, तेजोयुक्त ( रायः ईशानं ) धन के स्वामी, ( जामातरं ) नाती के उत्पादक जामाता, जंवाई को (ईमहे) प्राप्त करें। (२) हम यशस्वी, ऐश्वर्यवान् जन उत्तम ऐश्वर्यादि के स्वामी ( जामातरम् ) सर्व जगदुत्पादक प्रभु से (ईमहे) याचना करें।

    टिप्पणी

    श्वशुर सदा कन्या के लिये अभूतपूर्व अविवाहित जमाई को ही चाहे, वही 'त्वष्टा', प्रजा का उत्पादक होवे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुतावन्तः - द्युम्नाः-जनासः -ऋषभःङ्क

    पदार्थ

    [१] (त्वष्टुः जामातरम्) = प्रजापति की, संसार निर्माता प्रभु की अवि [रक्षण शक्ति] के रक्षक, (ईशानम्) = इस प्रकार सब के ईशान [स्वामी] (वायुम्) = वायुदेव से हम (रायः ईमहे) = धनों की याचना करते हैं। वायु से सब ऐश्वर्यों को माँगते हैं। [२] इस प्रकार वायु के प्रिय होते हम (सुतावन्तः) = शरीर में उत्पन्न प्रशस्त सोमवाले होते हैं। (द्युम्नाः) = ज्ञान-ज्योति को प्राप्त करते हैं। (जनासः) = अपनी सब शक्तियों का विकास कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- वायु के रक्षण में हम प्रशस्त सोम शक्तिवाले, ज्ञान- ज्योतिवाले व शक्तियों के प्रादुर्भाववाले बनते हैं।

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