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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    जु॒हु॒रा॒णा चि॑दश्वि॒ना म॑न्येथां वृषण्वसू । यु॒वं हि रु॑द्रा॒ पर्ष॑थो॒ अति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒हु॒रा॒णा । चि॒त् । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । म॒न्ये॒था॒म् । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । यु॒वम् । हि । रु॒द्रा॒ । पर्ष॑थः । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुहुराणा चिदश्विना मन्येथां वृषण्वसू । युवं हि रुद्रा पर्षथो अति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जुहुराणा । चित् । अश्विना । आ । मन्येथाम् । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । युवम् । हि । रुद्रा । पर्षथः । अति । द्विषः ॥ ८.२६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And Ashvins, harbingers of generous showers of prosperity, know, examine, understand and fix the crooked antisocial elements. You are the Rudras, agents of justice and award. Cleanse the jealous and punish the enemies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रकर्मचाऱ्यांनी परस्पर द्वेष, हिंसा इत्यादी अवगुण दूर करावे व उपद्रवी लोकांना यथायोग्य दंड देऊन सुमार्गाला लावावे. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तत्कर्माह ।

    पदार्थः

    हे वृषण्वसू ! अश्विनौ ! जुहुराणा+चित्=कुटिलानपि पुरुषान् । मन्येथाम्=वित्तम् । ततः । रुद्रा=रुद्रौ=भयङ्करौ । युवम्=युवाम् । हि । द्विषः=द्वेषिणः । अति+पर्षथः=अतीत्य संक्लेशयतम् । पृषु हिंसासंक्लेशनयोः ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः राजकर्म कहते हैं ।

    पदार्थ

    (वृषण्वसू) हे वर्षणशील धनयुक्त (अश्विना) हे राजा तथा मन्त्रिदल ! (जुहुराणा+चित्) कुटिल पुरुषों को (मन्येथाम्) विविध दूत द्वारा जानें और उनको सत्पथ में लावें (रुद्रा) भयङ्कर (युवम्) आप दोनों मिलकर (द्विषः) परस्पर द्वेषी और धर्म-कर्म से परस्पर द्वेष रखनेवाले (अति+पर्षथः) दण्ड देवें ॥५ ॥

    भावार्थ

    राष्ट्रकर्मचारियों को उचित है कि परस्पर द्वेष, हिंसा आदि अवगुण को दूर करें । और उपद्रवकारी जनों को यथाविधि दण्ड देकर सुमार्ग में लावें ॥५ ॥

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    विषय

    सैन्य-सैन्यपति के कर्त्तव्य ऐश्वर्ययुक्त सत्यवान्

    भावार्थ

    हे ( वृषण्वसू ) बलवान् प्राणों वालो ! हे बलवान् पुरुषो ! और सुखप्रद धनों के स्वामियो ! हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय पुरुषो ! हे 'अश्व' अर्थात् राष्ट्र एवं बलवान् अश्व सैन्यादि के स्वामियो ! आप दोनों ( जुहुराणा चित्) कुटिलता करने वालों को भी अच्छी प्रकार ( मन्येथाम् ) जानों, उनको दुष्टता करने से रोको। हे ( रुद्रा ) दुष्टों को रुलाने वाले, दुःखों को दूर भगाने वाले जनो ! ( युवं हि ) तुम दोनों अवश्य ही ( द्विषः ) द्वेष करने वाले, अप्रिय शत्रुओं और रोगादि, काम क्रोधादि को ( अति पर्षथः ) पराजित किया करो । इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    जुहुराणा चित् मन्येथाम्

    पदार्थ

    [१] हे (वषण्वसू) = सुखवर्षक वसुओं को प्राप्त करानेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! आप (जुहुराणा चित्) = शरीर में नस-नाड़ियों में टेढ़ी-मेढ़ी [crooked ] गति करते हुए भी (मन्येथाम्) = हमें ज्ञान की वृद्धिवाला करते हो। प्राण ज्ञान प्रकार से विविध नाड़ियों में से क्रुञ्चित गतिवाले होते हैं। ये प्राण शक्ति की ऊर्ध्वगति द्वारा ज्ञानाग्नि के दीपन का कारण बनते हैं। [२] (युवम्) = आप (हि) = ही (रुद्रा) = सब रोगों को दूर भगानेवाले हो। (द्विषः अतिपर्षथः) = द्वेष की भावनाओं से हमें पार करते हो। [हतम्] द्वेष की भावनाओं को आप विनष्ट करते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान शरीर नाड़ीचक्र में टेढ़ी-मेढ़ी गति से घूमते हुए भी हमारी ज्ञान वृद्धि का कारण बनते हैं और द्वेष की भावनाओं को विनष्ट करते हैं।

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