ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 20
ऋषिः - शक्तिर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒र॒श्मानो॒ ये॑ऽर॒था अयु॑क्ता॒ अत्या॑सो॒ न स॑सृजा॒नास॑ आ॒जौ । ए॒ते शु॒क्रासो॑ धन्वन्ति॒ सोमा॒ देवा॑स॒स्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒श्मानः॑ । ये । अ॒र॒थाः । अयु॑क्ताः । अत्या॑सः । न । स॒सृ॒जा॒नासः॑ । आ॒जौ । ए॒ते । शु॒क्रासः॑ । ध॒न्व॒न्ति॒ । सोमाः॑ । देवा॑सः । तान् । उप॑ । या॒त॒ । पिब॑ध्यै ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरश्मानो येऽरथा अयुक्ता अत्यासो न ससृजानास आजौ । एते शुक्रासो धन्वन्ति सोमा देवासस्ताँ उप याता पिबध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठअरश्मानः । ये । अरथाः । अयुक्ताः । अत्यासः । न । ससृजानासः । आजौ । एते । शुक्रासः । धन्वन्ति । सोमाः । देवासः । तान् । उप । यात । पिबध्यै ॥ ९.९७.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आजौ) ज्ञानयज्ञे ये विद्वांसः (ससृजानासः) दीक्षिताः कृताः (अत्यासः, न) विद्युदिव ये (अयुक्ताः) निर्बन्धनाः (अरश्मानः) ये च जीवन्तो मुक्ताः सन्तः (अरथाः) कर्मबन्धरहिताः (एते, शुक्रासः) एते पूर्वोक्तविद्वांसः (धन्वन्ति) अव्याहतगतयः सन्तः विचरन्ति (सोमाः, देवासः) सौम्या दिव्याश्च ये परमात्मनो गुणकर्मस्वभावाः (तान्) तान्स्वभावान् (पिबध्यै, उप यात) सेवितुं प्रयतन्तां विद्वांसः ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आजौ) ज्ञानयज्ञों में जो विद्वान् (ससृजानासः) दीक्षित किये गये हैं, (अत्यासः) विद्युत् के (नः) समान जो (अयुक्ताः) बन्धनरहित हैं, (अरश्मानः) जीवन्मुक्त होते हुए ये जो (अरथाः) कर्मों के बन्धनों से रहित हैं, (एते, शुक्रासः) उक्त तेजस्वी विद्वान् (धन्वन्ति) अव्याहतगति होकर सर्वत्र विचरते हैं। (सोमाः) सौम्य (देवासः) दिव्य जो परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव हैं, (तान्) उनको (पिबध्यै, उपयात) विद्वानों से प्रार्थना है कि आप लोग उक्त परमात्मा के गुणों को सेवन करने का प्रयत्न करें ॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव के सेवन करने का उपदेश है अर्थात् परमात्मा के गुणों के धारण करने से पुरुष पवित्र और तेजस्वी हो जाता है ॥२०॥
विषय
मुमुक्षु जनों का वर्णन।
भावार्थ
(ये) जो (अरश्मानः) रासों से रहित, निर्बन्ध, बन्धनों से रहित, (अरथाः) रमण करने योग्य देहों से रहित, विदेह, (अयुक्ताः अत्यासः न) रथों में न जुते अश्वों के समान गृहस्थ आदि बन्धनों में न फंसे वा विषयों में असक्त, (आजौ ससृजानासः) युद्ध में छुटे अश्वों के तुल्य ही (आजौ) परम प्राप्तव्य पद के लिये (ससृजानासः) तैयार होते हुए (एते शुक्रासः सोमाः) ये शुद्ध, कान्तियुक्त, आलस्यरहित होकर कार्य करने वाले, अभिषिक्त वा ऐश्वर्यवान् सौम्य गुण वाले (देवासः) तेजस्वी और मुमुक्षा की कामना करने वाले विद्वान् जन (धन्वन्ति) आ रहे हैं। (पिबध्यै तान्) उनसे ज्ञानरस पान करने और अपनी रक्षा के लिये उन तक (उपयात) पहुंचो। इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ससृजानासः आजौ
पदार्थ
(ये) = जो (अरश्मानः) = लगाम से रहित (अरथाः) = रथशून्य (अयुक्ताः) = अबद्ध (अत्यासः न) = घोड़ों के समान तीव्र गति वाले (आजौ ससृजानास:) = जीवन संग्राम के निमित्त उत्पन्न किये जाते हुए (एते शुक्रासः) = ये शक्तिशाली (सोमाः) = वीर्यकण (धन्वन्ति) = तुम्हें प्राप्त होते हैं। प्रभु ने इन सोमकणों को जीवन संग्राम में विजय के लिये उत्पन्न किया है। ये अत्यन्त तीव्र गति वाले हैं। इनका बन्धन व रक्षण सुगम नहीं है । हे (देवासः) = देववृत्ति के पुरुषो! (तान्) = उनको (पिबध्यै) = पीने के लिये, अपने अन्दर ही सुरक्षित करने के लिये (उपयाता) = प्रभु के समीप प्राप्त होवो, उपासना में बैठो। यह उपासना ही हमें सोमरक्षण के योग्य बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोमकण ही जीवन संग्राम में हमें विजयी बनाते हैं । उपासना इनके रक्षण में साधन बनती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma streams of ecstasy, unfettered, unbound, uninvolved, flow free like radiations of energy, refulgent, pure and consecrated, inspiring and energising in the yajnic battle of life. Let the leading lights of humanity advance and join the yajna to drink of the nectar.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराच्या गुण कर्म स्वभावाचे सेवन करण्याचा उपदेश आहे. अर्थात्, परमेश्वराचे गुण धारण करण्याने पुरुष पवित्र व तेजस्वी होतो. ॥२०॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal