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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 35
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सोमं॒ गावो॑ धे॒नवो॑ वावशा॒नाः सोमं॒ विप्रा॑ म॒तिभि॑: पृ॒च्छमा॑नाः । सोम॑: सु॒तः पू॑यते अ॒ज्यमा॑न॒: सोमे॑ अ॒र्कास्त्रि॒ष्टुभ॒: सं न॑वन्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑म् । गावः॑ । धे॒नवः॑ । वा॒व॒शा॒नाः । सोम॑म् । विप्राः॑ । म॒तिऽभिः॑ । पृ॒च्छमा॑नाः । सोमः॑ । सु॒तः । पू॒य॒ते॒ । अ॒ज्यमा॑नः । सोमे॑ । अ॒र्काः । त्रि॒ऽस्तुभः॑ । सम् । न॒व॒न्ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमं गावो धेनवो वावशानाः सोमं विप्रा मतिभि: पृच्छमानाः । सोम: सुतः पूयते अज्यमान: सोमे अर्कास्त्रिष्टुभ: सं नवन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमम् । गावः । धेनवः । वावशानाः । सोमम् । विप्राः । मतिऽभिः । पृच्छमानाः । सोमः । सुतः । पूयते । अज्यमानः । सोमे । अर्काः । त्रिऽस्तुभः । सम् । नवन्ते ॥ ९.९७.३५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 35
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोमं) उक्तपरमात्मानं (गावः, धेनवः) ज्ञानमयवाचः (वावशानाः) वाञ्छन्ति (सोमं) तमेव परमात्मानं (विप्राः) मेधाविजनाः (मतिभिः) ज्ञानैः (पृच्छमानाः) जिज्ञासन्ते (अज्यमानः) उपासितः (सुतः) आविर्भूतः (सोमः) परमात्मा (पूयते) साक्षात्क्रियते (सोमे) तस्मिन् परमात्मनि (त्रिष्टुभः) कर्मोपासनाज्ञानविषयास्त्रिप्रकारा अपि वाचः (अर्काः) याश्च परमात्मनोऽर्चिकाः ताः (सं, नवन्ते) संगता भवन्ति ॥३५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोमम्) उक्त परमात्मा की (गावो, धेनवः) ज्ञानरूप वाणियें इच्छा करती हैं, (सोमम्) उक्त परमात्मा की (विप्राः) मेधावी लोग (मतिभिः) ज्ञान द्वारा (पृच्छमानाः) जिज्ञासा करते हैं, (अज्यमानः) उपासना किया हुआ (सुतः) आविर्भाव को प्राप्त हुआ (सोमः) परमात्मा (पूयते) साक्षात्कार किया जाता है (सोमे) उक्त परमात्मा में (त्रिष्टुभः) कर्म, उपासना, ज्ञानरूप तीनों प्रकार की वाणियें (अर्काः) जो परमात्मा की अर्चना करनेवाली हैं, वे (सं नवन्ते) संगत होती हैं ॥३५॥

    भावार्थ

    कर्म, उपासना तथा ज्ञान, तीनों प्रकार के भावों को वर्णन करनेवाली वेदरूपी वाणियें एकमात्र परमात्मा में ही संगत होती हैं अथवा यों कहो कि जिस प्रकार सब नदियें समुद्र की ओर प्रवाहित होती हैं, इसी प्रकार वेदरूपी वाणियें परमात्मरूपी समुद्र की शरण लेती हैं ॥३५॥

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    विषय

    अग्रणी विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (धेनवः) दुधार गौवों के समान (गावः) वाणियां वा भूमियां भी (सोमं) वीर्यवान् ब्रह्मचारी को, राजा को भूमियों के तुल्य (वावशानाः) चाहती हुई, (संनवन्ते) बड़े विनय से उसे प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार (मतिमिः पृच्छमानाः) मतियों से पूछते हुए (विप्राः) विद्वान् जन भी (सोमं संनवन्ते) उस शासक, वीर्यवान्, ऐश्वर्यवान् के प्रति झुकते और प्राप्त होते हैं (अज्यमानः) ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित होता हुआ (सुतः) अभिषिक्त या स्नातक होकर ही (सोमः पूयते) सोम पवित्र होता है। और (सोमे) उस ऐश्वर्य युक्त में ही (त्रिष्टुभः अर्काः) तीनों प्रकारों से उसकी स्तुति करने वाली अर्चना वाणियें (संनवन्ते) उसकी ओर झुकती हैं। इति सप्तदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    त्रिष्टुभः अर्काः

    पदार्थ

    (धेनवः) = से प्रीणित करनेवाली (गावः) = वेदवाणी रूप गौवें (वावशाना:) = प्रबल कामना वाली होती हुई (सोमं) = उस शान्त प्रभु की ओर (सं नवन्ते) = जाती हैं। ये सब वेदवाणियाँ प्रभु का ही ज्ञान देती हैं । (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (मतिभिः) = मननवाली बुद्धियों से (सोमं पृच्छमानाः) = उस शान्त प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए गति करते हैं। ऐसा होने पर शरीर में (सुतः) = उत्पन्न (सोम:) = वीर्य (पूयते) = पवित्र होता है यह (अज्यमान:) = यह शरीर में ही अलंकृत किया जाता है। इस (सोमम्) = सोम के सुरक्षित होने पर (त्रिष्टुभः) = काम-क्रोध-लोभ सभी को रोकनेवाली (अर्क:) = ये प्रकाशमयी वाणियाँ (सं नवन्ते) = हमें सम्यक् प्राप्त होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब वेदवाणियाँ प्रभु की ओर जाती हैं। सोमरक्षण द्वारा ही हम इन्हें प्राप्त करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Dynamic and creative languages of love and faith celebrate Soma, the languages of scholars enquiring into reality with thought and analysis concentrate on Soma. It is Soma which, distilled from observation and experience and crystallised in nature and function, is sought to be comprehended or apprehended in the language medium. Indeed all speech media of description, definition, comprehension, apprehension, celebration or adoration arise from Soma and merge into Soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्म, उपासना व ज्ञान तीन प्रकारच्या भावांचे वर्णन करणारी वेदरूपी वाणी परमात्मामध्येच अलंकृत होते अथवा असे म्हणता येईल की ज्या प्रकारे सर्व नद्या समुद्राकडे प्रवाहित होतात त्याचप्रकारे वेदरूपी वाणी परमात्मारूपी समुद्राला शरण जाते. ॥३५॥

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