Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 37
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ जागृ॑वि॒र्विप्र॑ ऋ॒ता म॑ती॒नां सोम॑: पुना॒नो अ॑सदच्च॒मूषु॑ । सप॑न्ति॒ यं मि॑थु॒नासो॒ निका॑मा अध्व॒र्यवो॑ रथि॒रास॑: सु॒हस्ता॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । जागृ॑विः । विप्रः॑ । ऋ॒ता । म॒ती॒नाम् । सोमः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒स॒द॒त् । च॒मूषु॑ । सप॑न्ति । यम् । मि॒थु॒नासः॑ । निऽका॑माः । अ॒ध्व॒र्यवः॑ । र॒थि॒रासः॑ । सु॒ऽहस्ताः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ जागृविर्विप्र ऋता मतीनां सोम: पुनानो असदच्चमूषु । सपन्ति यं मिथुनासो निकामा अध्वर्यवो रथिरास: सुहस्ता: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । जागृविः । विप्रः । ऋता । मतीनाम् । सोमः । पुनानः । असदत् । चमूषु । सपन्ति । यम् । मिथुनासः । निऽकामाः । अध्वर्यवः । रथिरासः । सुऽहस्ताः ॥ ९.९७.३७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 37
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (चमूषु) सर्वविधबलानि (पुनानः) पवित्रयन् (सोमः) सौम्यगुणः परमात्मा (मतीनां) मेधाविनां हृदि (आ असदत्) विराजते स च (ऋता) सत्यः (विप्रः) सर्वज्ञः (जागृविः) ज्ञानस्वरूपश्चास्ति (यं) यं परमात्मानं (मिथुनासः) कर्मयोगिज्ञानयोगिनौ (निकामाः) यौ च निष्कामकर्माणौ (अध्वर्यवः) अहिंसाव्रतं धारयन्तौ च (रथिरासः) ज्ञानशील एकः (सुहस्ताः) कर्मशीलो द्वितीयः, तौ प्राप्नुतः ॥३७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चमूषु) सब प्रकार के बलों को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (सोमः) सोमरूप परमात्मा (मतीनाम्) मेधावी लोगों के हृदय में (आ असदत्) विराजमान होता है, वह परमात्मा (ऋता) सत्यस्वरूप है, (विप्रः) मेधावी है, (जागृविः) ज्ञानस्वरूप है, (यम्) जिस परमात्मा को (मिथुनासः) कर्मयोगी और ज्ञानयोगी (निकामाः) जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं और (अध्वर्यवः) अहिंसारूपी व्रत को धारण किये हुए हैं, (रथिरासः) ज्ञानी और (सुहस्ताः) कर्मशील हैं, वे प्राप्त होते हैं ॥३७॥

    भावार्थ

    उक्त विशेषणोंवाले ज्ञानयोगी और कर्मयोगी परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥३७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऐश्वर्य पदाधिकारी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (विप्रः) विद्वान् (जागृविः) जागरणशील, सदा सावधान, (सोमः) शास्ता, उपदेष्टा, विद्यावान् पुरुष (मतीनां) मननशील पुरुषों के (ऋता) सत्य २ ज्ञानों और तेजों को (पुनानः) प्राप्त करता (चमूषु) योग्य २ पदों या सैन्यों पर (असदत्) विराजे। (यं) जिसको (मिथुनासः) परस्पर संगत, (नि-कामाः) खूब चाहने वाले, अति प्रिय, (अध्वर्यवः) ‘अध्वर’ अर्थात् प्रजा का अविनाश चाहने वाले (रथिरासः) उत्तम रथी और (सु-हस्ताः) उत्तम हनन साधनों से सम्पन्न वीर पुरुष (सपन्ति) प्राप्त होते, समवाय बनाते हैं वही सोम, शास्ता सैन्यों का पति हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जागृवि: विप्रः

    पदार्थ

    (जागृविः) = सदा जागरणशील, निरन्तर रक्षा करनेवाला, (विप्रः) = हमारा विशेष रूप से पूरण करनेवाला (सोमः) = सोम [वीर्य] (मतीनाम्) = मननपूर्वक स्तुति करने वालों के ऋता यज्ञों के द्वारा (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (चमूषु) = इन शरीर रूप पात्रों में (असदत्) = चारों ओर स्थित होता है । स्तवन व यज्ञों में लगे रहने से हमारे पर वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और सोम के रक्षण का सम्भव हो जाता है। सुरक्षित सोम हमारा रक्षण करता है और पूरण करता है । यह सोम वह है (यम्) = जिसको (मिथुनासः) = परस्पर मिलकर कार्य करनेवाले ही (सपन्ति) = स्पृष्ट करते हैं। लड़ने झगड़नेवाले क्रोधी स्वभाव के पुरुष इस का रक्षण नहीं कर पाते। (निकामा:) = रक्षण की नितरां कामना वाले ही इसका रक्षण करते हैं। (अध्वर्यवः) = यज्ञशील, (रथिरासः) = शरीररथ को उत्तम बनानेवाले (सुहस्ताः) = सदा हाथों से शोभन कर्मों में लगे हुए पुरुष ही इस सोम को शरीर में पीनेवाले होते हैं। सोम को शरीर में सुरक्षित करने का मार्ग यही है कि हम इसके रक्षण की प्रबल कामना वाले हों और यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारा रक्षण व पूरण करता है। इसके रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम सदा उत्तम कर्मों में व्यस्त रहकर वासनाओं से बचे रहें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ever wakeful, all intelligent, ever true, pure, purifying and celebrated, Soma abides in the heart core of the visionary sages, and him, loving yajakas dedicated to yajna of love and non-violence, noble of action commanding their body chariot of personality, together serve, adore and worship with high love and devotion of their mind and soul.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    वरील स्वरूप (पवित्र, सोमरूप, मेधावी, ज्ञानस्वरूप) असणारे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी परमेश्वराला प्राप्त करतात. ॥३७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top