ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
ऋषिः - इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्दु॑र्दे॒वाना॒मुप॑ स॒ख्यमा॒यन्त्स॒हस्र॑धारः पवते॒ मदा॑य । नृभि॒: स्तवा॑नो॒ अनु॒ धाम॒ पूर्व॒मग॒न्निन्द्रं॑ मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दुः॑ । दे॒वाना॑म् । उप॑ । स॒ख्यम् । आ॒यन् । स॒हस्र॑ऽधारः । प॒व॒ते॒ । मदा॑य । नृऽभिः॑ । स्तवा॑नः । अनु॑ । धाम॑ । पूर्व॑म् । अग॑न् । इन्द्र॑म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुर्देवानामुप सख्यमायन्त्सहस्रधारः पवते मदाय । नृभि: स्तवानो अनु धाम पूर्वमगन्निन्द्रं महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दुः । देवानाम् । उप । सख्यम् । आयन् । सहस्रऽधारः । पवते । मदाय । नृऽभिः । स्तवानः । अनु । धाम । पूर्वम् । अगन् । इन्द्रम् । महते । सौभगाय ॥ ९.९७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दुः) कर्मयोगी (देवानां) विदुषां (उपसख्यं) मैत्रीभावं (आयन्) प्राप्नुवन् (मदाय) आनन्दाय (पवते) सर्वान् पावयति, स कर्मयोगी (सहस्रधारः) अनन्तशक्तिधारकः (महते, सौभगाय) महासौभाग्याय (इन्द्रं) ऐश्वर्यं (अगन्) प्राप्नुवन् (नृभिः, स्तवानः) जनैः स्तूयमानः (पूर्वं, धाम) सर्वोच्चं धाम निर्माति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दुः) कर्म्मयोगी विद्वान् (देवानाम्) विद्वानों के (उपसख्यम्) मैत्रीभाव को (आयन्) प्राप्त होता हुआ (मदाय) आनन्द के लिये (पवते) सबको पवित्र करता है। वह कर्म्मयोगी (सहस्रधारः) अनन्त प्रकार की शक्तियें रखता हुआ (महते सौभागाय) बड़े सौभाग्य के लिये (इन्द्रं) ऐश्वर्य्य को (अगन्) प्राप्त होता हुआ (पूर्वं, धाम) सर्वोपरि धाम बनाता है ॥५॥
भावार्थ
जिन पुरुषों के मध्य में एक भी कर्मयोगी होता है, वह सबको उद्योगी बनाकर पवित्र बना देता है ॥५॥
विषय
जीव का राजावत् वर्णन। उसका परमपद की ओर प्रयाण।
भावार्थ
(इन्दुः) तेजोयुक्त, इस और उस लोक को द्रवित होनेवाला वा उस प्रभु का उपासक जीव, राजावत् (देवानाम् सख्य आयन्) विद्वानों और वीरों के मैत्रीभाव को प्राप्त करता हुआ, (सहस्रधारः) सहस्रों शक्तियों, वाणियों, और स्तुतियों वाला होकर (मदाय) परमानन्द के लाभ के लिये यत्न करे। वह (नृभिः स्तवानः) उत्तम नेता मार्गदर्शी जनों द्वारा उपदेश प्राप्त करता हुआ (पूर्वम् धाम अनु) पूर्व जन्म के अनुसार (महते सौभगाय) बड़े भारी ऐश्वर्यं सुखादि प्राप्त करने के लिये (इन्द्रम् अगन्) उस परमेश्वर को प्राप्त हो। इसी प्रकार राजा या विद्वान् विद्वानों का सख्य प्राप्त कर उत्तम जन्मों से उपदिष्ट होकर परम सौभाग्य के लिये प्रभु वा सर्वोपरि पद को प्राप्त हो। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पूर्वंधाम अनु अगन्
पदार्थ
(इन्दुः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला यह सोम (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों के (सख्यम्) = मित्रता को उपायन=प्राप्त होता हुआ, अर्थात् देववृत्ति के पुरुषों से अपने अन्दर सुरक्षित किया जाता हुआ (सहस्त्रधारः) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाला होता है और (मदाय) = आनन्द के लिये (पवते) = प्राप्त होता है। सुरक्षित सोम जीवन में उल्लास का कारण बनता है । (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुषों से (स्तवानः) = स्तुति किया जाता हुआ यह सोम (पूर्वं धाम) = अपने प्राचीन गृह, अर्थात् ब्रह्मलोक की (अनु अगन्) = ओर जानेवाला होता है। जब हम सोम गुणों का शंसन करते हुए सोम का रक्षण करते हैं, तो यह सोम हमें ब्रह्म को प्राप्त करानेवाला होता है । यह सोम (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (महते सौभगाय) = महान् सौभाग्य के लिये प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- जब हम देववृत्ति को अपना कर सोम का रक्षण करते हैं, तो यह हमें उल्लासमय जीवन वाला बनाता है और अन्ततः प्रभु की प्राप्ति करानेवाला होता है। यह हमारे महान् सौभाग्य का कारण बनता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indu, Soma spirit of light and life, coming close to friendship of the divinities, purifies and flows in a thousand streams for the joy of humanity. Adored by leading lights, it rises to the top of honour and glory in keeping with its position and reaches Indra, the ruling soul, for the great good fortune of society.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या पुरुषामध्ये एक कर्मयोगी जरी असेल तर तो सर्वांना उद्योगी बनवून पवित्र बनवितो. ॥५॥
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