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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 47
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ष प्र॒त्नेन॒ वय॑सा पुना॒नस्ति॒रो वर्पां॑सि दुहि॒तुर्दधा॑नः । वसा॑न॒: शर्म॑ त्रि॒वरू॑थम॒प्सु होते॑व याति॒ सम॑नेषु॒ रेभ॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । प्र॒त्नेन॑ । वय॑सा । पु॒ना॒नः । ति॒रः । वर्पां॑सि । दु॒हि॒तुः । दधा॑नः । वसा॑नः । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । अ॒प्ऽसु । होता॑ऽइव । या॒ति॒ । सम॑नेषु । रेभ॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष प्रत्नेन वयसा पुनानस्तिरो वर्पांसि दुहितुर्दधानः । वसान: शर्म त्रिवरूथमप्सु होतेव याति समनेषु रेभन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । प्रत्नेन । वयसा । पुनानः । तिरः । वर्पांसि । दुहितुः । दधानः । वसानः । शर्म । त्रिऽवरूथम् । अप्ऽसु । होताऽइव । याति । समनेषु । रेभन् ॥ ९.९७.४७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 47
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः) अयं परमात्मा (प्रत्नेन, वयसा) प्राचीनैश्वर्येण (पुनानः) पावयन् (दुहितुः) पृथिव्याः (वर्पांसि) रूपाणि (तिरः, दधानः) स्वतेजसाऽऽच्छादयन् (शर्म) सुखं (वसानः) दधानः (त्रिवरूथं)  त्रिगुणामपि प्रकृतिं धारयन् (अप्सु) कर्मयज्ञेषु (होता, इव) यज्ञकर्तेव (समनेषु) यज्ञेषु (रेभन्) शब्दं कुर्वन् (याति) सर्वत्र व्याप्नोति ॥४७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) उक्त परमात्मा (प्रत्नेन, वयसा) प्राचीनैश्वर्य्य से (पुनानः) पवित्र करता हुआ और (दुहितुः) पृथिवी के (वर्पांसि) रूपों को (तिरोदधानः) अपने तेज से आच्छादन करता हुआ (शर्म) सुख को (वसानः) धारण करता हुआ (त्रिवरूथम्) सत्त्व रजः तमोरूप तीनों गुणोंवाली प्रकृति को धारण करते हुए (अप्सु) कर्मयज्ञों में यज्ञ करनेवाले (होता, इव) होता के समान (समनेषु) यज्ञों में (रेभन्) शब्दायमान होता हुआ परमात्मा (याति) सर्वत्र व्याप्त हो रहा है ॥४७॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार होता अथवा उद्गातादि ऋत्विग् लोग वेदों का गायन करते हुए इस विविध रचनारूप विराट् का वर्णन करते हैं, इसी प्रकार परमात्मा स्वयं उद्गातारूप होकर वेदरूप गीति के द्वारा चराचर ब्रह्माण्डों का वर्णन करता है अर्थात् प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा इस चराचर जगत् की विविध रचना का हेतु एक भाव परमात्मा ही है, कोई अन्य नहीं ॥४७॥

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    विषय

    विद्रान् शासक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (एषः) यह (प्रत्नेन वयसा) अपने पुराने ज्ञान-बल से (पुनानः) पवित्र करता हुआ और (दुहितुः) सब सुखों के देने वाली बुद्धि के वा सर्वसुखप्रद परमेश्वर और अपने बीच आये (वर्पांसि) समस्त आवरणों को (तिरः दधानः) दूर करता हुआ, (त्रि-वरूथं शर्म वसानः) तीनों तापों के वारक, परम सुखद गृहवत् शरण में रहता हुआ, (समनेषु रेभन् होता इव) यज्ञों में मन्त्रों का उच्चारण करने वाले होता विद्वान् के समान स्वयं भी (रेभन्) भगवान् की स्तुति करता हुआ (अप्सु याति) लिंग शरीरों या प्राणों के बीच में गमन करता है। इसी प्रकार राजा अभिषिक्त होकर दुहितावत् प्रजा वा भूमि के समस्त विघ्नों को दूर करता हुआ राज-भवन में रहता हुआ, आज्ञाएं प्रदान करता हुआ प्रजाओं के बीच विचरे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रत्नेन वयसा पुनानः

    पदार्थ

    (एषः) = यह सोम (प्रत्नेन) = प्राचीन [पुराणे] (वयसा) = [ Soundness of constitution] शरीर के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ, (दुहितुः) = [दुह प्रपूरणे] सोम का अपने शरीर में पूरण करनेवाले के (वर्षांसि) = रूपों व तेजों को (तिरः दधानः) = [तिरः सतः इति प्राप्तस्य नि० ३.२० ] प्राप्त रूप में धारण करता हुआ है। सुरक्षित हुआ हुआ सोम उत्कृष्ट रूप को प्राप्त कराता है और दीर्घकाल तक इस शरीर को स्वस्थ रखता है। (त्रिवरूथं) = काम-क्रोध-लोभ तीनों का निवारण करनेवाले (शर्म) = कल्याण को (वसानः) = धारण करता हुआ यह सोम (होता इव) = एक यज्ञकर्ता के समान अप्सुकर्मों में (याति) = गतिवाला होता है। यह सोम (समनेषु) = संग्रामों में, व्याकुलता व क्षोभ के क्षेत्रों में (रेभन्) = प्रभु का स्तवन करनेवाला होता है । सोमरक्षक पुरुष जीवन संग्राम में प्रभुस्मरण करता हुआ आगे बढ़ता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से वही वृद्धावस्था में भी शरीर बड़ा ठीक बना रहता है, तेजस्विता कायम रहती है, काम-क्रोध-लोभ का आक्रमण नहीं होता, कर्मशीलता उत्पन्न होती है और प्रभुस्मरण के साथ हम जीवन संग्राम में लगे रहते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Soma, for eternity, bearing eternal life energy for body, mind and soul, pure, purifying, sanctifying, sustaining and yet transcending all existential forms of its generated world, its darling daughter, pervading, loving and enlightening the holy peaceful three-level universe of heaven, earth and the middle regions sustained in the atomic dynamics of nature’s laws, goes on and on resounding as the high- priest and chief yajaka through the creative-conflictive- evolving orders of yajnic mutability reaching the divine destination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या प्रकारे होता किंवा उद्गाता इत्यादी ऋत्विज लोक वेदाचे गायन करत या विविध रचनारूप विराटचे वर्णन करतात त्याचप्रकारे परमेश्वर स्वत: उद्गातारूप बनून वेदरूपी गीतीद्वारे चराचर ब्रह्मांडांचे वर्णन करतो. अर्थात, प्रकृतीच्या तिन्ही गुणांद्वारे या चराचर जगाच्या विविध रचनांचा हेतू एकमेव परमात्माच आहे. दुसरा कोणी नाही. ॥४७॥

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