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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 53
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त न॑ ए॒ना प॑व॒या प॑व॒स्वाधि॑ श्रु॒ते श्र॒वाय्य॑स्य ती॒र्थे । ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नैगु॒तो वसू॑नि वृ॒क्षं न प॒क्वं धू॑नव॒द्रणा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । ए॒ना । प॒व॒या । प॒व॒स्व॒ । अधि॑ । श्रु॒ते । श्र॒वाय्य॑स्य । ती॒र्थे । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । नै॒गु॒तः । वसू॑नि । वृ॒क्षम् । न । प॒क्वम् । धू॒न॒व॒त् । रणा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न एना पवया पवस्वाधि श्रुते श्रवाय्यस्य तीर्थे । षष्टिं सहस्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । एना । पवया । पवस्व । अधि । श्रुते । श्रवाय्यस्य । तीर्थे । षष्टिम् । सहस्रा । नैगुतः । वसूनि । वृक्षम् । न । पक्वम् । धूनवत् । रणाय ॥ ९.९७.५३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 53
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत) तथा च (एना, पवया) अनया पवित्रदृष्ट्या (श्रवाय्यस्य) श्रवणयोग्ये (तीर्थे) तीर्थस्वरूपे (श्रुते) श्रवणे विषये (अधि, पवस्व) अत्यन्तं पावयतु मां येनाहं (नैगुतः) शत्रोः (षष्टिं, सहस्रा, वसूनि) असंख्यातधनान्यपहरन् (पक्वं, वृक्षं, न) पक्ववृक्षमिव (रणाय) युद्धस्थले (धूनवत्) शत्रूंश्चलयन् संसारे विहराणि ॥५३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) और (एना) इस (पवया) पवित्र दृष्टि से (श्रवाय्यस्य) जो सबके सुनने के योग्य (श्रुते) श्रवणविषय है और (तीर्थे) तीर्थस्वरूप है, उसमें (अधि) अत्यन्त (पवस्व) आप हमको पवित्र करें, ताकि हम (नैगुतः) शत्रुओं के (षष्टिं, सहस्रा, वसूनि) असंख्यात धनों को हरण करते हुए (पक्वम्) पके हुए (वृक्षम्) वृक्ष के (न) समान (रणाय) रण के लिये (धूनवत्) उनको कँपाते हुए संसार में यात्रा करें ॥५३॥

    भावार्थ

    जो लोग उक्त प्रकार से कर्मयोगी वा उद्योगी बनते हैं, परमात्मा उन्हें अवश्यमेव अविद्यारूपी शत्रुओं के हनन करने का सामर्थ्य देता है ॥५३॥

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    विषय

    दयालुत्ता पूर्ण कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (उत) और (श्रुते) बहुश्रुत, ज्ञानवान्, (तीर्थे) दुःखों और अज्ञानादि से तारने वाले गुरु के (अधि) अधीन रह कर (श्रवाय्यस्य) श्रवण करने योग्य ज्ञानमय वेद की (एना) इस (पवया) पवित्र करने वाली वाणी से (नः पवस्व) हमें पवित्र कर। (नैगुतः) निम्न, विनीत वाणी बोलने वाले शिष्यजनों का स्वामी, गुरु होकर तू (षष्टिं सहस्रा वसूनि) साठ हज़ार धनों को (पक्वं वृक्षं न) पके वृक्ष के तुल्य (रणाय धूनवत्) रमण या आनन्द लाभ के लिये कंपित कर। अर्थात् हम पर पके वृक्ष से फलों के तुल्य ६०००० ऐश्वर्य के तुल्य ज्ञानों को प्रदान कर। (२) इसी प्रकार सोम शासक भी (नैगुतः) नीची भूमि के शत्रु जनों का स्वामी होकर राजा पर सहस्रों सुख ऐश्वर्य वर्षावे॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    श्रवाय्यस्य तीर्थे

    पदार्थ

    (उत) = और हे सोम ! तू (नः) = हमें (एना पवया) = इस अपनी पवित्र करनेवाली धारा से (अधिश्रुते) = सर्वाधिक प्रसिद्ध श्रवाय्यस्य तीर्थे श्रवणीय ज्ञान के तीर्थभूत-गुरुभूत प्रभु के समीप पवस्व प्राप्त करा । प्रभु निरतिशय ज्ञानवाले हैं, [तन्निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ] वे गुरुओं के भी गुरु हैं [ स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्] । सोमरक्षण के द्वारा पवित्र जीवनवाले होकर, हम प्रभु के समीप प्राप्त होते हैं। (नैगुतः) = [नीचीनं गवन्ते शब्दायन्ते इति निगुतः शत्रवः, तेषां हन्ता 'नैगुतः '] = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला सोम (षष्टिं सहस्रा वसूनि) = साठ हजार धनों को, अनन्त धनों को (रणाय) = शत्रुओं के साथ संग्राम के लिये (धूनवद्) = कम्पित करे, अर्थात् हमारे लिये इस प्रकार प्राप्त कराये (ते) = जैसे कि (पक्कं वृक्षम्) = पके हुए फलों वाले वृक्ष को कम्पित करके फलों को प्राप्त कराते हैं। शरीर में सुरक्षित सोम हमें शत्रु विजय के लिये आवश्यक सहस्रशः धनों को प्राप्त करानेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमें तीव्र बुद्धि बनाकर प्रभु को प्राप्त कराता है। तथा सहस्रशः वसुओं को प्राप्त कराके शत्रुओं का विजेता बनाता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And by this sacred stream of divinity, cleanse and sanctify us in this holy lake of the divine Word worth hearing over and above what has been heard. Master of infinite power and wealth, destroyer of hoards of negativities, give us boundless forms of wealth for our battle of life, shaking, as if, like a tree of ripe fruit this mighty tree of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक वरील प्रकाराने कर्मयोगी किंवा उद्योगी बनतात परमात्मा त्यांना अवश्य अविद्यारूपी शत्रूंचे हनन करण्याचे सामर्थ्य देतो. ॥५३॥

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