ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 39
ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स व॑र्धि॒ता वर्ध॑नः पू॒यमा॑न॒: सोमो॑ मी॒ढ्वाँ अ॒भि नो॒ ज्योति॑षावीत् । येना॑ न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: पद॒ज्ञाः स्व॒र्विदो॑ अ॒भि गा अद्रि॑मु॒ष्णन् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । व॒र्धि॒ता । वर्ध॑नः । पू॒यमा॑नः । सोमः॑ । मी॒ढ्वान् । अ॒भि । नः॒ । ज्योति॑षा । आ॒वी॒त् । येन॑ । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । प॒द॒ऽज्ञाः । स्वः॒ऽविदः॑ । अ॒भि । गाः । अद्रि॑म् । उ॒ष्णन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वर्धिता वर्धनः पूयमान: सोमो मीढ्वाँ अभि नो ज्योतिषावीत् । येना न: पूर्वे पितर: पदज्ञाः स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । वर्धिता । वर्धनः । पूयमानः । सोमः । मीढ्वान् । अभि । नः । ज्योतिषा । आवीत् । येन । नः । पूर्वे । पितरः । पदऽज्ञाः । स्वःऽविदः । अभि । गाः । अद्रिम् । उष्णन् ॥ ९.९७.३९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 39
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः) परमात्मा (वर्धिता) सर्वेषां वर्धकः (वर्धनः) स्वयं च वर्धमानः (पूयमानः) शुद्धः (सोमः) सौम्यस्वभावः (मीढ्वान्) सर्वकामनानां वर्षुकः स (नः) अस्माकं (ज्योतिषा) ज्ञानैः (अभि, आवीत्) रक्षां करोतु (येन) येन परमात्मना (नः, पूर्वे, पितरः) मम प्रथमसृष्टेर्ज्ञानिनः (पदज्ञाः) पदपदार्थज्ञानवन्तः (स्वर्विदः) स्वतन्त्रसत्ताज्ञाः (अद्रिं, उष्णन्) चित्तवृत्तिं निरुन्धन् (अभि, गाः) ज्ञानं लक्ष्यीकृत्य तं सोमम् उपासते स्म, तेनैव भावेन वयमपि तमुपासीमहि ॥३९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) वह परमात्मा (वर्धिता) सबको बढ़ानेवाला है (वर्धनः) स्वयं वर्धमान है (पूयमानः) शुद्धस्वरूप है (सोमः) सौम्यस्वभाव है, (मीढ्वान्) सब कामनाओं की वृष्टि करता है, वह (नः) हमारी (ज्योतिषा) अपने ज्ञान द्वारा (अभ्यावीत्) रक्षा करे और (येन) जिस परमात्मा से (नः) हमारे (पूर्वे) प्रथम सृष्टि के (पितरः) ज्ञानी लोग (पदज्ञाः) पद-पदार्थ के जाननेवाले (स्वर्विदः) स्वतन्त्र सत्ता के जाननेवाले (अद्रिमुष्णन्) अपनी चित्तवृत्ति का निरोध करते हुए (अभिगाः) ज्ञान को लक्ष्य बनाकर उक्त परमात्मा की उपासना करते थे, उसी भाव से हम भी उक्त परमात्मा की उपासना करें ॥३९॥
भावार्थ
जिस प्रकार पूर्वज लोग परमात्मा की उपासना करते थे, उसी प्रकार की उपासनाओं का विधान इस मन्त्र में किया गया है। तात्पर्य्य यह है कि “सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्” इत्यादि मन्त्रों में जो इसे सृष्टिप्रवाहरूप से वर्णन किया है, उसी भाव को यहाँ प्रकारान्तर से वर्णन किया है ॥३९॥
विषय
उपास्य प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(येन) जिसके द्वारा (नः) हमारे (पूर्व) पूर्व के (पदज्ञाः-पितरः) ज्ञान मार्ग या प्राप्तव्य परम पद को जानने वाले पालक, गुरु आदि जन (स्व:-विदः) प्रकाश, सुख को प्राप्त करने वाले होकर (अद्रिम् अभि गाः) मेघ को लक्ष्य कर जिस प्रकार चातक या कृषक जलधाराओं को चाहता है उसी प्रकार जिन्होंने जिससे (गाः उष्णन्) नाना ज्ञान वाणियें भूमियों, और इन्द्रिय-सामर्थ्य, शक्तियां प्राप्त की हैं (सः) वह (पूयमानः) उपासना किया गया (सोमः) सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक प्रभु (वर्धिता) सब को बढ़ाने वाला (वर्धनः) स्वयं भी वृद्धिशील वा सब संकटों को काटने वाला, (मीढ्वान्) सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला, (नः) हमें (ज्योतिषा) ज्ञानमय प्रकाश से सूर्य वा चन्द्रवत् (अभि आवीत्) प्राप्त हो, हमें बढ़ावे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अविद्या पर्वत का ध्वंस
पदार्थ
(सः) = वह (वर्धिता) = हमारी वृद्धि का करनेवाला (वर्धनः) = वृद्धिशील (पूयमानः) = पवित्र होता हुआ (सोमः) = सोम [वीर्य] (मीढ्वान्) = सुखों व शक्तियों का सेचन करनेवाला (नः) = हमें (ज्योतिषा) = ज्योति से (अभि आवीत्) = प्राप्त हो, ज्ञान- ज्योति के द्वारा हमारा रक्षण करनेवाला हो । (येना) = जिस सोम द्वारा प्राप्त ज्योति से (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (पितरः) = रक्षक (पदज्ञा:) = मार्ग को जाननेवाले (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाले लोग (गाः अभि) = ज्ञान की वाणियों का लक्ष्य करके (अद्रिं उष्णन्) = अविद्या पर्वत को दग्ध करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से वह ज्योति प्राप्त होती है, जो अविद्या पर्वत को दग्ध करनेवाली होती है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, exalted and exalting, pure and purifying, virile and generous, may, we pray, protect and promote us with the light of knowledge by which our forefathers, knowing the meaning and purpose of life step by step with a passionate desire for knowledge, rising to the sun, attained to the ultimate freedom and bliss of heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे पूर्वीचे लोक परमेश्वराची उपासना करत होते त्याच प्रकारच्या उपासनांचे विधान या मंत्रात केलेले आहे. तात्पर्य हे आहे की ‘‘सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत’’ इत्यादी मंत्रात सृष्टीचे प्रवाहरूपाने वर्णन केलेले आहे. तोच भाव येथे प्रकारन्तराने वर्णिलेला आहे. ॥३९॥
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