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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - ब्रह्मादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    वा॒युष्ट्वा॑ पच॒तैर॑व॒त्वसि॑तग्रीव॒श्छागै॑र्न्य॒ग्रोध॑श्चम॒सैः श॑ल्म॒लिर्वृद्ध्या॑। ए॒ष स्य रा॒थ्यो वृषा॑ प॒ड्भिश्च॒तुर्भि॒रेद॑गन्ब्र॒ह्मा कृ॑ष्णश्च नोऽवतु॒ नमो॒ऽग्नये॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒युः। त्वा॒। प॒च॒तैः। अ॒व॒तु॒। असि॑तग्रीव॒ इत्यसि॑तऽग्रीवः। छागैः॑। न्य॒ग्रोधः॑। च॒म॒सैः। श॒ल्म॒लिः। वृद्ध्या॑। ए॒षः। स्यः। रा॒थ्यः। वृषा॑। प॒ड्भिरिति॑ प॒ड्ऽभिः। च॒तुर्भि॒रिति॑ च॒तुःभिः॑। आ। इत्। अ॒ग॒न्। ब्र॒ह्मा। अकृ॑ष्णः। च॒। नः॒। अ॒व॒तु॒। नमः॑। अ॒ग्नये॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायुष्ट्वा पचतैरवतुऽअसितग्रीवश्छागैन्यग्रोधश्चमसैः शल्मलिर्वृद्धयाऽएष स्य राथ्यो वृषा । पड्भिश्चतुर्भिरेदगन्ब्रह्माकृष्णश्च नोवतु नमो ग्नये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वायुः। त्वा। पचतैः। अवतु। असितग्रीव इत्यसितऽग्रीवः। छागैः। न्यग्रोधः। चमसैः। शल्मलिः। वृद्ध्या। एषः। स्यः। राथ्यः। वृषा। पड्भिरिति पड्ऽभिः। चतुर्भिरिति चतुःभिः। आ। इत्। अगन्। ब्रह्मा। अकृष्णः। च। नः। अवतु। नमः। अग्नये॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -
    १. (वायु:) = शरीर में वैश्वानर [जाठराग्नि] अग्नि के साथ मिलकर पाचनक्रिया को करनेवाला प्राणवायु (त्वा) = तुझे (पचतैः) = भोजनों के ठीक परिपाकों से (अवतु) = रोगों से बचाए । पाचनक्रिया के ठीक न होने पर ही शरीर रोगाक्रान्त हुआ करता है। २. (असितग्रीव:) = बद्धग्रीवावाला (छागै:) = छेदन - भेदन से तेरी रक्षा करे। संसार में विषय मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं, मनुष्य उनसे बँध जाता है और फिर गर्दन में रस्सी से बँधे पशु की भाँति वह न्याय्य-अन्याय्य मार्गों में उनसे ले जाया जाता है, परन्तु जो 'असितग्रीव'-विषयों से अ-बद्ध गर्दनवाला होता है वह इन विषय-वासनाओं का छेदन-भेदन करते हुए अपना उत्तम रक्षण कर पाता है । ३. (न्यग्रोधः) = [ न्यञ्चति, रोहति] जो निरभिमानता से, नीचे होकर चलता और इस नम्रता से ही विकास व उन्नतिवाला होता है वह (चमसैः) = सत्य, यश व श्री के आचमनों से तेरी रक्षा करे। वस्तुतः जो व्यक्ति नम्र बनता है वही उन्नत होता है और वही सत्य, यश व श्री आदि को प्राप्त करता है। ४. (शल्मलिः) = [शल्= गति मलि-possession, enjoyment] गति को धारण करना अथवा गति में ही आनन्द लेना (वृद्धया) = वृद्धि के द्वारा तेरी रक्षा करे। वस्तुतः जो मनुष्य निरन्तर क्रियाशील रहता है, जिसे क्रिया में आनन्द आने लगता है वह सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है। ५. (एषः) = यह असितग्रीव, न्यग्रोध व शल्मलि' नामवाला (स्यः) = वह पुरुष (राथ्य:) = इस उत्तम शरीररूप रथवाला होता है, (वृषा) = यह बलवान् व सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है । ६. यह (चतुर्भिः पद्भिः) = चारों पुरुषार्थों के साथ, अर्थात् 'धर्मार्थकाममोक्ष' चारों के लिए प्रयत्नशील होता हुआ (इत्) = निश्चय से (आगन्) = प्रभु के समीप प्राप्त हुआ है। ७. प्रभु के समीप प्राप्त होने से यह (ब्रह्मा) = बड़ा व निर्माण करनेवाला बना है, (अकृष्णः च) = इसका कोई कर्म मलिन नहीं हुआ। यह (अकृष्णः) = विषयों से अनाकृष्ट ब्रह्मा महान् निर्माता (नः अवतु) = अपने ज्ञानोपदेशों व कार्यों से हमारा रक्षण करे। इस (अग्नये नमः) = अग्रेणी पुरुष के लिए हम नमस्कार करते हैं। हम रोगों से बचे रहें। विषयों से

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणों द्वारा भोजन के ठीक परिपाक से अबद्ध रहकर हम उन्नति के विघ्नों का छेदन-भेदन करें। नम्रता से चलते हुए उन्नति को प्राप्त करके हम सत्य, यश व श्री को धारण करें। गतिशीलता में आनन्द हमारी वृद्धि का कारण बने। हम उत्तम शरीर-रथवाले व शक्तिशाली बनकर धर्मार्थकाममोक्ष चारों का साधन करते हुए परमात्मा को प्राप्त करें। विषयों से अनाकृष्ट व निर्माण के कार्यों में लगे हुए व्यक्ति हमारी रक्षा करें। हम इन रक्षक अग्रेणी नेताओं के लिए नतमस्तक हों।

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