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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 31
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - राजप्रजे देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं ब॒हु मन्य॑ते।शू॒द्रो यदर्या॑यै जा॒रो न पोष॒मनु॑ मन्यते॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ह॒रि॒णः। यव॑म्। अत्ति॑। न। पु॒ष्टम्। ब॒हु॒। मन्य॑ते। शू॒द्रः। यत्। अर्य्या॑यै। जा॒रः। न। पोष॑म्। अनु॑। म॒न्य॒ते॒ ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टम्बहु मन्यते । शूद्रो यदर्यायै जारो न पोषमनुमन्यते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। हरिणः। यवम्। अत्ति। न। पुष्टम्। बहु। मन्यते। शूद्रः। यत्। अर्य्यायै। जारः। न। पोषम्। अनु। मन्यते॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 31
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    पदार्थ -
    १. (यत्) = जब (हरिण:) = जिसने प्रजा के दुःखों का हरण करना था, वह राजा ही (यवम्) = प्रजा को [अपने से दोषों को दूर करनेवाली व गुणों से अपना मेल करनेवाली प्रजा को] (अत्ति) = खाता है, वह पुष्टम् प्रजा के पोषण को न बहु (मन्यते) = बहुत महत्त्व नहीं देता । विलास की वृत्ति राजा को अन्धा बना देती है और वह विलास में फँसा हुआ प्रजा का तो नाश करता ही है, अपना भी नाश कर बैठता है। २. (शूद्रः) = एक शूद्र जब (अर्यायै जार:) = किसी वैश्य स्त्री का प्रेमी बन जाता है तब (पोषम्) = वंशवर्धन की (न अनुमन्यते) = कभी स्वीकृति नहीं देता, अर्थात् उसके उस प्रेम में केवल विलासिता ही विलासिता होती हैं, वहाँ कोई उच्च भावना काम नहीं कर रही होती। इस प्रकार एक विलासवृत्ति का राजा प्रजा पोषण का नाममात्र भी ध्यान नहीं देता ।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा विलासी हो जाए तो वह उस शूद्र व्यक्ति के समान होता है जो एक स्वामिनी का प्रेमी बनकर वंशवृद्धि के विचार को कोई महत्त्व नहीं देता ।

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