यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 25
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - भूमिसूर्य्यौ देवते
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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मा॒ता च॒ ते पि॒ता च॒ तेऽग॑रे वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः। विव॑क्षतऽइव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु॥२५॥
स्वर सहित पद पाठमा॒ता। च॒। ते॒। पि॒ता। च॒। ते॒। अग्रे॑। वृ॒क्षस्य॑। क्री॒ड॒तः॒। विव॑क्षतऽइ॒वेति॑ विव॑क्षतःऽइव। ते॒। मुख॑म्। ब्रह्म॑न्। मा। त्वम्। व॒दः॒। ब॒हु ॥२५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माता च ते पिता च ते ग्रे वृक्षस्य क्रीडतः । विवक्षतऽइव ते मुखम्ब्रह्मन्मा त्वँवदो बहु ॥
स्वर रहित पद पाठ
माता। च। ते। पिता। च। ते। अग्रे। वृक्षस्य। क्रीडतः। विवक्षतऽइवेति विवक्षतःऽइव। ते। मुखम्। ब्रह्मन्। मा। त्वम्। वदः। बहु॥२५॥
विषय - संयत-वाणी
पदार्थ -
१. हे राष्ट्रवृक्ष! ते माता च तेरा निर्माण करनेवाली यह प्रजा, (पिता च ते) = और तेरा रक्षण करनेवाला यह राजा (वृक्षस्य अग्रे) = इस राष्ट्रवृक्ष के अग्रभाग में (क्रीडतः) = एक क्रीडक की भावना से युक्त होकर सारे कर्त्तव्यों को करते हैं, अर्थात् इस राजकार्य में इनको जीत-हार की कोई वासना [complex] व्यथत नहीं करती। राजा केवल रौब के लिए कोई काम नहीं करता। २. (ब्रह्मन्) - हे राष्ट्र का वर्धन करनेवाले राजन् ! (ते मुखम्) = तेरा मुख विवक्षतः इव= राज्य के विशिष्ट भार को उठानेवाले पुरुष के मुख की भाँति है। तेरे चेहरे से लगता है कि तूने महान् उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लिया हुआ है, परन्तु (त्वम्) = तू (बहु मा वदः) = बहुत बोल नहीं, चूँकि बहुत बोलनेवाला अपनी शक्ति को क्षीण कर लेता है और भार को उठा नहीं पाता ।
भावार्थ - भावार्थ - राजा और प्रजा राष्ट्र कार्यों को एक क्रीड़क की वृत्ति से निभाते हैं। राजा विशिष्ट राज्यभार को अपने कन्धे पर लेता है और बड़ी संयत वाणीवाला होता है।
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