यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 52
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - परमेश्वरो देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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प॒ञ्चस्व॒न्तः पुरु॑ष॒ऽआवि॑वेश॒ तान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ऽअर्पि॑तानि।ए॒तत्त्वात्र॑ प्रतिमन्वा॒नोऽअ॑स्मि॒ न मा॒यया॑ भव॒स्युत्त॑रो॒ मत्॥५२॥
स्वर सहित पद पाठप॒ञ्चस्विति॑। प॒ञ्चऽसु॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। पुरु॑षः। आ। वि॒वे॒श॒। तानि॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। पुरु॑षे। अर्पि॑तानि। ए॒तत्। त्वा॒। अत्र॑। प्र॒ति॒म॒न्वा॒न इति॑ प्रतिऽमन्वा॒नः। अ॒स्मि॒। न। मा॒यया॑। भ॒व॒सि॒। उत्त॑र॒ इत्युत्ऽत॑रः। मत्॥५२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चस्वन्तः पुरुषऽआविवेश तान्यन्तः पुरुषेऽअर्पितानि । एतत्त्वात्र प्रतिमन्वानोऽअस्मि न मायया भवस्युत्तरो मत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पञ्चस्विति। पञ्चऽसु। अन्तरित्यन्तः। पुरुषः। आ। विवेश। तानि। अन्तरित्यन्तः। पुरुषे। अर्पितानि। एतत्। त्वा। अत्र। प्रतिमन्वान इति प्रतिऽमन्वानः। अस्मि। न। मायया। भवसि। उत्तर इत्युत्ऽतरः। मत्॥५२॥
विषय - NULL
पदार्थ -
१. (पञ्चस्वन्तः) = पाँच के अन्दर (पुरुषः) = पुरुष (आविवेश) = प्रविष्ट हुआ है। [क] 'अन्नमयकोश' उसका सबसे बाहर का आवरण है, उसके अन्दर क्रमशः 'प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोश हैं। इनके अन्दर इस शरीररूप पुरी में शयन व निवास करनेवाला यह जीवात्मा प्रविष्ट हुआ है। [ख] इस रूप में भी कह सकते हैं कि 'पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश' इन पञ्चभूतों से बने इस शरीर में वह शरीरी पुरुष प्रविष्ट हो रहा है। [ग] इस शरीर में पाँचों प्राणों में भी उसी की शक्ति काम कर रही है। पाँचों प्राणों में भी यही प्रविष्ट है। [घ] पाँचों कर्मेन्द्रियों में स्थित होकर वही इनसे कार्य कर रहा है। [ङ] और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का अधिष्ठाता वही पुरुष है। [च] इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठातृरूपेण यह 'शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध' आदि पाँच तन्मात्राओं का ग्रहण करनेवाला बनता है। २. (तानि) = वे सबके सब (अन्तः पुरुषे) = अन्तःस्थित पुरुष पर ही (अर्पितानि) = आश्रित हैं। इसके इस शरीर को छोड़ने पर [क] उन सब कोशों का अन्त हो जाता है। [ख] यह पाँच भौतिक शरीर विनष्ट होकर पञ्चभूतों में विलीन हो जाता है- पृथिवी तत्त्व पृथिवी में मिल जाता है तो जलीय तत्त्व जल में, अग्नि अग्नि में मिली, वायु, वायु में गया और आकाश महाकाश के रूप में दिखने लगा। [ग] इसी प्रकार पाँचों प्राणों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का भी विलय हो जाता है। उस समय इन 'शब्दादि' पञ्चतन्मात्राओं का भी यहाँ ग्रहण नहीं होता। ३. [क] जब तक इस पाँच भौतिक शरीर में यह पुरुष विद्यमान रहता है तभी तक वह एक सद्गृहस्थ से धारण के योग्य 'अन्वाहार्यपचनदक्षिण, गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य व आवसथ्य' इन पाँचों अग्नियों का धारण करता है। [ख] बड़ों को पञ्चाङ्ग प्रणाम करने का [ बाहुभ्यां चैव जानुभ्यः शिरसा वक्षसा दृशा] ध्यान करता है। [ग] शरीर के पोषण के लिए 'दूध, शर्करा, घृतदधि - मधु' इस पंचामृत का विधिवत् सेवन करता है। [घ] पंचावयव अनुमान वाक्य से [इदं जगत् सकर्तृकम्, कार्यत्वात् घटवत्, यत् यत् कार्यं तत् तत् सकर्तृकं यथा: घटः, इदं जगत् अपि कार्यं, तस्माद् सकर्तृकम्] प्रतिज्ञा- हेतु उदाहरण-उपनय व निगमन का ठीक प्रयोग करता हुआ ईश्वरादि परोक्ष पदार्थों का निश्चय करता है। [ङ] पंचशर [कामदेव] के 'संमोहन- उन्मादन- शोषण- तापन स्तम्भन' पाँच बाणों का शिकार न होने के लिए यहीं पुरुष 'पञ्चतप' तपस्या भी किया करता है [ चतुर्दिक् अग्नि व सूर्य] । [च] इस स्थूल शरीर के शोधन के लिए 'वमन रेचन- नस्य अनुवासन [oily enema ] उनिरुह [enema not oily] इन पाँच कर्मों का भी यह कभी-कभी प्रयोग करता है। [छ] ऐसे अवसरों पर यह 'पंचगव्य' [क्षीरं दधि तथा चाज्यं मूत्रं गोमयमेव च ] के प्रयोग का ध्यान करता है। [ण] पाँच मकारों से [मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन] बचता है। [झ] पाँच पर्वों को [चतुर्दशी - अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा, रवि-संक्रान्ति] प्रभुपूजा में व्यतीत करता हुआ अपने में उत्तमताओं को भरता है। [ज] पञ्च महायज्ञों का करना [ब्रह्मयज्ञ देवयज्ञ- पितृयज्ञ-अतिथियज्ञ - बलिवैश्वदेवयज्ञ] इसे कभी विस्मृत नहीं होता। इन्हीं के द्वारा वह गृहस्थ के अन्दर वर्त्तमान पाँच सूनाओं [slaughter houses] का प्रायश्चित्त करता है। [पञ्च सूना: गृहस्थस्य चुल्ली - पेषण्युपस्कर: कंडनी-उदकुम्भश्च]। [ट] इस प्रकार यह पञ्चार्पित पुरुष संसार की अभिनय - स्थली में पञ्चाङ्ग अभिनय करता हुआ जीवनयापन करता है 'चित्ताक्षिभ्रूहस्तपादैरंगैश्चेष्टादिताम्यतः पात्राद्यवस्थाकरणं पंचांगोऽभिनयो मतः । ४. इस प्रकार ब्रह्मा उत्तर देकर कहते हैं कि (एतत्) = यह (अत्र) = इस विषय में (त्वा) = प्रति (मन्वान:) = तेरे प्रति मननपूर्वक विचार को उपस्थित करता हुआ (अस्मि) = मैं हूँ । (मायया) = बुद्धि से तू (मत् उत्तर:) = मुझसे अधिक उत्कृष्ट (न भवसि) = नहीं होता है। तू मुझे बुद्धि से जीत नहीं सकता।
भावार्थ - भावार्थ- हम पाँचों के अन्दर प्रविष्ट व अन्तः प्रविष्ट होकर पाँचों का धारण आत्मस्वरूप का मनन करनेवाले बनें।
- सूचना - यहाँ प्रश्नोत्तर में ज्ञानविषयक स्वस्थ स्पर्धा द्रष्टव्य है। उद्गाता का ललकारना व ब्रह्मा का चैलेञ्ज को स्वीकार करना सचमुच अभिनयात्मक है। ऐसी ज्ञान - चर्चाएँ ही मानवजाति के उत्थान का कारण हो सकती हैं।
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