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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 60
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - समाधाता देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वेदा॒हम॒स्य भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ वेद॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरि॑क्षम्।वेद॒ सूर्य॑स्य बृह॒तो ज॒नित्र॒मथो॑ वेद च॒न्द्रम॑सं यतो॒जाः॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑। अ॒हम्। अ॒स्य। भुव॑नस्य। नाभि॑म्। वेद॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। वेद॑। सूर्य॑स्य। बृ॒ह॒तः। ज॒नित्र॑म्। अथो॒ इत्यथो॑। वे॒द॒। च॒न्द्रम॑सम्। य॒तो॒जा इति॑ य॒तःऽजाः ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिँवेद द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम् । वेद सूर्यस्य बृहतो जनित्रमथो वेद चन्द्रमसँयतोजाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वेद। अहम्। अस्य। भुवनस्य। नाभिम्। वेद। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। अन्तरिक्षम्। वेद। सूर्यस्य। बृहतः। जनित्रम्। अथो इत्यथो। वेद। चन्द्रमसम्। यतोजा इति यतःऽजाः॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    १. 'अह व्याप्तौ' धातु से बनकर 'अहम्' शब्द उस प्रभु का वाचक है जोकि 'अह्नोति सर्वं जगद् व्याप्नोति' सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करने के कारण सर्वव्यापक हैं। वे सर्वव्यापक प्रभु ही (अहम्) = जोकि 'अहं' शब्द वाच्य हैं (अस्य भुवनस्य नाभिं वेद) = इस ब्रह्माण्ड के बन्धनस्थान को जानते हैं। 'इस ब्रह्माण्ड का धारण कैसे हो रहा है? यह किसमें बँधा हुआ गिरकर नष्ट नहीं हो जाता?' यह सब बात उस सर्वव्यापक प्रभु के ही ज्ञान का विषय है। २. वे सर्वव्यापक प्रभु ही (द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्) = द्युलोक, पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोक को (वेद) = जानते हैं। इन लोकों का ठीक-ठीक स्वरूप सामान्य मनुष्य के ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है? ('अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेन) = इस सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद ही देव भी हुए' अतः देव भी इसे पूरा-पूरा नहीं जानते। मनुष्यों के जान सकने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ३. वे सर्वव्यापक प्रभु ही (बृहतः) = इस महान् (सूर्यस्य) = सूर्य के (जनित्रम्) = जन्म को (वेद) = जानता है। सूर्य को वे प्रभु ही जन्म देनेवाले हैं, अतः वे ही सूर्य के जन्म आदि को जानते हैं। ४. अथो और वे प्रभु ही (चन्द्रमसम्) = चन्द्रमा को (यतोजा:) = जैसे यह उत्पन्न हुआ, वैसे जानते हैं। मनुष्य के ज्ञान से ये बातें परे हैं। वस्तुतः इस संसार के जन्म-धारण व प्रलय आदि को ठीक-ठीक जान सकना मानव के लिए सम्भव ही नहीं । वेद कहता है ('को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:') = कौन-साक्षात् जानता है और कौन इसका प्रतिपादन कर सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँ से आ गई? किस प्रकार इसका जन्म हो गया? यह सब 'अतर्क्य व अविज्ञेय' - सा ही है। इसे केवल (अहम्) = सर्वव्यापक प्रभु ही जानते हैं। ,

    भावार्थ - भावार्थ - इस भुवन का बन्धन कहाँ है ? द्युलोक पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोक क्या हैं, महान् सूर्य का जन्म कैसे हुआ तथा चन्द्रमा कहाँ से हुआ है? ये सब बातें एकमात्र सर्वव्यापक प्रभु के ही ज्ञान का विषय हैं।

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