यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 40
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रजा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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ऋ॒तव॑स्तऽऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ विशा॑सतु।सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभिः॑ शम्यन्तु त्वा॥४०॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तवः॑। ते॒। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। पर्व॑। श॒मि॒तारः॑। वि। शा॒स॒तु॒। सं॒व॒त्स॒रस्य॑। तेज॑सा। श॒मीभिः॑। श॒म्य॒न्तु॒। त्वा॒ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतवस्त्वाऽऋतुथा पर्व शमितारो वि शासतु । सँवत्सरस्य तेजसा शमीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतवः। ते। ऋतुथेत्यृतुऽथा। पर्व। शमितारः। वि। शासतु। संवत्सरस्य। तेजसा। शमीभिः। शम्यन्तु। त्वा॥४०॥
विषय - ऋतुओं की अनुकूलता
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की अनुकूलता होने पर ब्रह्माण्ड के सभी देवों की अनुकूलता हो जाती है। उसी का वर्णन करते हुए कहते हैं-(ऋतवः) = वसन्त आदि ऋतुएँ (ते) = तेरे (ऋतुथा) = उस-उस ऋतु के अनुसार चलने से पर्व एक-एक जोड़ को (शमितार:) = शान्त करनेवाली होकर (विशासतु) = विशिष्ट उपदेश दें। ऋतुएँ सब सुन्दर हैं, परन्तु जब मनुष्य प्रभु से दूर होकर विषयों में भटक जाता है तब उसके पर्वों में विविध मलों का संग्रह होकर शरीर में विविध रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऋतुचर्या ठीक होने पर शरीर व मन दोनों नीरोग होते हैं और यह नीरोग व्यक्ति वसन्त आदि के उपदेश को जीवन में अनूदित करने का प्रयत्न करता है। यह 'वसन्त' की भाँति उत्तम निवासवाला व उत्तम शक्तियों के विकासवाला बनने का प्रयत्न करता है। 'ग्रीष्म' की भाँति उत्साहसम्पन्न व निरालस्य बनता है । 'वर्षा' के समान लोगों पर ज्ञान की वर्षा के द्वारा उनके सन्ताप को हरने का प्रयत्न करता है। 'शरद' की भाँति बुराईरूप सब पत्तों को अपने से झाड़नेवाला बनता है। बुराइयों को झाड़कर 'हेमन्त' की भाँति अपना [हि उपचये] उपचय [वृद्धि] करता है और 'शिशिर' से [शश प्लुतगतौ ] तीव्र गति का उपदेश ग्रहण करता है। कार्यों में पूरे उत्साह से लगा रहता है। २. इस प्रकार ये सब ऋतुएँ मिलकर ('संवत्सर') = [वर्ष] को बनाती हुई (संवत्सरस्य तेजसा) = सम्पूर्ण वर्ष की तेजस्विता से, अर्थात् जिस तेजस्विता में बीमार पड़ जाने के कारण कमी नहीं आ गई, उस तेजस्विता से तथा (शमीभिः) = [ शमी = कर्म-नि० २। १ ] शान्तिपूर्वक किये जाते हुए कर्मों से (त्वा) = तुझे (शम्यन्तु) = शान्त जीवनवाला बनाएँ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभुभक्त के लिए सब ऋतुएँ अनुकूल व सुन्दर होती हैं। वे उसके पर्व-पर्व को शान्त करनेवाली होती हैं। इन ऋतुओं से सूचित उपदेश को भक्त ग्रहण करता है और ये ऋतुएँ नीरोगता के कारण सम्पूर्ण वर्ष की अक्षीण तेजस्विता से तथा कर्मों से इसके जीवन को शान्त बनाती हैं।
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