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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - पत्नी देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    या श॒तेन॑ प्रत॒नोषि॑ स॒हस्रे॑ण वि॒रोह॑सि। तस्या॑स्ते देवीष्टके वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम्॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। श॒तेन॑। प्र॒त॒नोषीति॑ प्रऽत॒नोषि॑। स॒हस्रे॑ण। वि॒रोह॒सीति॑ वि॒ऽरोह॑सि। तस्याः॑। ते॒। दे॒वि॒। इ॒ष्ट॒के॒। वि॒धेम॑। ह॒विषा॑। व॒यम् ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या शतेन प्रतनोषि सहस्रेण विरोहसि । तस्यास्ते देवीष्टके विधेम हविषा वयम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। शतेन। प्रतनोषीति प्रऽतनोषि। सहस्रेण। विरोहसीति विऽरोहसि। तस्याः। ते। देवि। इष्टके। विधेम। हविषा। वयम्॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 21
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    भावार्थ -
    हे दूर्वा के समान पृथ्वी पर फैलने वाली राज्यशक्ते ! तू (या) जो ( शतेन ) सैकड़ों बलों से ( प्रतनोषि ) अपने को विस्तृत करती है और ( सहस्रेण ) अपने हज़ारों वीर योद्धाओं द्वारा ( विरोहसि ) विविध रूपों में अपना जड़ जमाती है । हे ( देवि ) देवि ! विजयशीले ! धन-दात्रि ! ( इष्टके ) सब को इष्ट या प्रिय लगनेवाली, सबकी व्यवस्था करने वाली ( तस्या: ते) उस तेरा ( वयम् ) हम ( हविषा ) अन्नादि, कर आदि रूप में दातव्य और राजा द्वारा उपादेय पदार्थों से या ज्ञानपूर्वक ( विधेम ) सेवन या विधान या निर्माण करें ॥ शत० ७ । ४ । २ । १५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दूर्वा पत्नी देवता । अग्निर्ऋषिः । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥

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