यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 54
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - प्राणा देवताः
छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी जगती
स्वरः - निषादः
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अ॒यं पु॒रो भुव॒स्तस्य॑ प्रा॒णो भौ॑वा॒यनो व॑स॒न्तः प्रा॑णाय॒नो गा॑य॒त्री वा॑स॒न्ती गा॑य॒त्र्यै गा॑य॒त्रं गा॑य॒त्रादु॑पा॒शुरु॑पा॒शोस्त्रि॒वृत् त्रि॒वृतो॑ रथन्त॒रं वसि॑ष्ठ॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॑ प्राणं गृ॑ह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। पु॒रः। भुवः॑। तस्य॑। प्रा॒णः। भौ॒वा॒य॒न इति॑ भौवऽआ॒य॒नः। व॒स॒न्तः॒। प्रा॒णा॒य॒न इति॑ प्राणऽआ॒य॒नः। गा॒य॒त्री। वा॒स॒न्ती। गा॒य॒त्र्यै। गा॒य॒त्रम्। गा॒य॒त्रात्। उ॒पा॒शुरित्यु॑पऽअ॒ꣳशुः। उ॒पा॒शोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृतः॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। वसि॑ष्ठः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। प्रा॒णम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयम्पुरो भुवस्तस्य प्राणो भौवनायो वसन्तः प्राण्यनो गायत्री वासन्ती गायत्र्यै गायत्रङ्गायत्रादुपाँशुरुपाँशोस्त्रिवृत्त्रिवृतो रथन्तरँवसिष्ठऽऋषिः । प्रजापतिगृहीतया त्वया प्राणङ्गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। पुरः। भुवः। तस्य। प्राणः। भौवायन इति भौवऽआयनः। वसन्तः। प्राणायन इति प्राणऽआयनः। गायत्री। वासन्ती। गायत्र्यै। गायत्रम्। गायत्रात्। उपाशुरित्युपऽअꣳशुः। उपाशोरित्युपऽअꣳशोः। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। त्रिवृत इति त्रिऽवृतः। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम्। वसिष्ठः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। प्राणम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रजाभ्यः॥५४॥
विषय - दिशा भेद से प्राण भेद से, और ऋतुभेद से राजा, आत्मा और सूर्य संवत्सर, बलों विद्वानों और यज्ञागों के अनुरूप राष्ट्रागों का वर्णन ।
भावार्थ -
( अयम् ) यह अग्निस्वरूप वाला ( पुरः ) पूर्व दिशा से और ( भुवः ) सबका मूल कारण स्वयं सत् रूप से विद्यमान था । ( तस्य ) उसका ही यह सामर्थ्य स्वरूप ( प्राणः) प्राण है। इसी से वह ( भौवायनः ) 'भु' का अपत्य उससे उत्पन्न होने से 'भौवायन' कहाता है | ( प्राणायन ) प्राण से उत्पन्न होने वाला (वसन्तः) 'वसन्त' | अर्थात् प्राणों से वह तत्व उत्पन्न हुआ जिसमें समस्त जीव बसते हैं। ( वासन्ती गायत्री) 'वसन्त' सबको बसाने वाले तत्व से 'गायत्री', प्राणों की रक्षा करने वाली शक्ति या वाणी उत्पन्न हुई । (गायत्र्यै गायत्रम् ) गायत्री शक्ति से गायन अर्थात् प्राण रक्षक बल उत्पन्न हुआ ( गायत्राद् उपांशुः ) गायत्र बल से 'उपांशु' नाम प्राण उत्पन्न हुआ ( उपांशी: त्रिवृत्) उपांशु प्राण से त्रिवृत नामक प्राण उत्पन्न होता है । (त्रिवृतः रथन्तरम् ) त्रिवृत् नाम प्राण से रथन्तर नाम प्राण का बल जिससे इन्द्रियों में ग्राह्य विषय ग्रहण किये जाते हैं यह उत्पन्न होता है। उन सबका ( ऋषिः ) प्रवर्तक और द्रष्टा ( वसिष्ठः ) सब प्राणों में मुख्य रूप से वसने वाला 'प्राण' वसिष्ट कहना है । हे चितिशक्ते ! या हे वाणि ! (प्रजापतिगृहोतया) प्रजा के पालक मुख्य प्राण द्वारा वशीकृत ( त्वया ) तुझ द्वारा मैं ( प्रजाभ्यः ) प्रजाओं के (प्राणं गृहणामि) प्राण को वश करता हूँ । शत० ८।१।१।१-६॥
राजा और राष्ट्र-पक्ष में - यह प्राण राजा 'भुव' है। उसके प्राण रूप अमात्य आदि 'भौवायन' है। उनमें उत्तरोत्तर वसन्त गायत्री, ( सेना ) गायत्र. ( बल) उपांशु. ( सेनापति त्रिवत् त्रिवर्ण रथन्तर, रथ बल उत्पन्न होते हैं। सबका द्रष्टा मुख्य राजा का पुरोहित ' वसिष्ठ' है । प्रजापति, प्रजा के पालक राजा से वशीकृत तुझ प्रजा या पृथिवी से म प्राण को या अन्न को प्रजा के हितार्थ प्राप्त करता हूँ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्राण देवताः । विश्वकर्मा ऋषिः । स्वराड् ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
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