यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 57
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - स्वराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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इ॒दमु॑त्त॒रात् स्व॒स्तस्य॒ श्रोत्र॑ꣳ सौ॒वꣳ श॒रछ्रौ॒त्र्युड्टनु॒ष्टुप् शा॑र॒द्यनु॒ष्टुभ॑ऽ ऐ॒डमै॒डान् म॒न्थी म॒न्थिन॑ऽ एकवि॒ꣳशऽ ए॑कवि॒ꣳशाद् वै॑रा॒जं वि॒श्वामि॑त्र॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ श्रोत्रं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५७॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम्। उ॒त्त॒रात्। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। तस्य॑। श्रोत्र॑म्। सौ॒वम्। श॒रत्। श्रौ॒त्री। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। शा॒र॒दी। अ॒नु॒ष्टुभः॑। अ॒नु॒स्तुभ॒ इत्य॑नु॒ऽस्तुभः॑। ऐ॒डम्। ऐ॒डात्। म॒न्थी। म॒न्थिनः॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। ए॒क॒वि॒ꣳशादित्ये॑ऽकवि॒ꣳशात्। वै॒रा॒जम्। वि॒श्वामि॑त्रः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। श्रोत्र॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमुत्तरात्स्वस्तस्य श्रोत्रँ सौवँ शरच्छ्रौत्र्यनुष्टुप्शारद्यनुष्टुभऽऐडमैडान्मन्थी मन्थिनऽएकविँशऽएकविँशाद्वैराजँविश्वामित्रऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया श्रोत्रङ्गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम्। उत्तरात्। स्वरिति स्वः। तस्य। श्रोत्रम्। सौवम्। शरत्। श्रौत्री। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। शारदी। अनुष्टुभः। अनुस्तुभ इत्यनुऽस्तुभः। ऐडम्। ऐडात्। मन्थी। मन्थिनः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। एकविꣳशादित्येऽकविꣳशात्। वैराजम्। विश्वामित्रः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। श्रोत्रम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५७॥
विषय - दिशा भेद से प्राण भेद से, और ऋतुभेद से राजा, आत्मा और सूर्य संवत्सर, बलों विद्वानों और यज्ञागों के अनुरूप राष्ट्रागों का वर्णन ।
भावार्थ -
( इदम् उत्तरात् स्वः ) यह उत्तर दिशा में या सब से ऊपर महान् आकाश स्व:' है । ( तस्य ) उस प्रजापति का वह आकाश ही महान् श्रोत्र है । इसलिये ( सौवं श्रोत्रम् ) उसका श्रोत्र 'स्वः' होने से 'सौव' कहाता है । इसी प्रकार इस शरीर में 'स्वः' अर्थात् सुखं का साधन आकाश की तन्मात्रा से ही बना हुवा श्रोत्र है । ( श्रौत्री शरत्) 'संवत्सर' रूप प्रजापति में शरत् ऋतु ही श्रोत्र के समान है । वर्षा के बाद आकाश और दिशाएं खुल जाने से शरद् ऋतु उत्पन्न होती हैं, इसी से शरत् मानो प्रजापति के श्रोत्र रूप आकाश या दिशाओं से उत्पन्न होती है । ( शारदी अनुष्टुप् ) शरद् ऋतु से अनुष्टुप् छन्द उत्पन्नं होता है । अर्थात् छन्दों में जिस प्रकार अनुष्टुप् सर्व प्रिय है उसी प्रकार ऋतुओं में 'शरद' है । (अनुष्टुभ ऐडम् ) अनुष्टुप से 'ऐड' नाम साम की उत्पत्ति होती है। अर्थात् अनुष्टुप् नाम छन्द से ऐड अर्थात् 'इड़ा' वाणी का विस्तार होता है । ( ऐडात् मन्थी ) ऐड नाम साम से यज्ञ में सन्धिग्रह उत्पन्न होता है । वाणी के विस्तार से इन्द्रियों और हृदय को मथनं करने की शक्ति उत्पन्न होती है । ( मन्थिनः एकविंशः ) मन्थिग्रह से यज्ञ में 'एकविंश' नाम सोम की उत्पत्ति होती है। वाणी के बल पर हृदय मथन हो जाने पर २० अंगों सहित इक्कीसवां आत्मा स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होता है | ( एकविंशाद वैराजम् ) यज्ञ में एकविंशस्तोम से 'वैराज' साम की उत्पत्ति होती है । आत्मा से ही विविध तेजों से राजमान देह की उत्पत्ति होती है । 'एकविंश' राजा से ही विविध राष्ट्र के कार्यों की उत्पत्ति होती है । ( विश्वामित्र ऋषिः ) शरीर में श्रोत्र ही विश्वामित्र ऋषि है । वह ज्ञानवान् पुरुष राष्ट्र में कर्म के समान समस्त प्रजाओं के दुःख पीड़ाओं को सुनता है। वह भी ऋपि दृष्टा 'विश्वामित्र', सब का परम स्नेही है | ( प्रजापतिगृहीतया वया ) प्रजापति द्वारा स्वीकृत तुझ परम प्रकृति से जिस प्रकार प्रजाभ्यः ) समस्त उत्पन्न पदार्थों के हितार्थ (श्रोत्रं) आकाश रूप श्रोत्र का उपयोग किया गया है, उसमें समस्त सृष्टि फैली है। उसी प्रकार राजा द्वारा राजशक्ति के वश कर लेने पर प्रजाओं के 'श्रोत्र' अर्थात् सुख दुःख श्रवण करने वाले न्यायाधीश को मैं (गृहामि) स्वीकार करूं। इसी प्रकार हे स्त्री ! प्रजापति, गृहपति द्वारा स्त्री रूप में स्वीकृत तु द्वारा मैं प्रजा के हित के लिये अपने श्रोत्र का उपयोग करूं। शत० ८।१।२।४-६॥
टिप्पणी -
'ऐठ्ठमळानू' इति काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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