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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 56
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः
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    अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ चक्षु॑र्वै॒श्वव्यच॒सं व॒र्षाश्चा॑क्षु॒ष्यो जग॑ती वा॒र्षी जग॑त्या॒ऽ ऋक्स॑म॒मृक्स॑माच्छु॒क्रः शु॒क्रात् स॑प्तद॒शः स॑प्तद॒शाद् वै॑रू॒पं ज॒मद॑ग्नि॒र्ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ चक्षु॑र्गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। प॒श्चात्। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। तस्य॑। चक्षुः॑। वै॒श्व॒व्य॒च॒समिति॑ वैश्वऽव्य॒च॒सम्। व॒र्षाः। चा॒क्षु॒ष्यः᳖। जग॑ती। वा॒र्षी। जग॑त्याः। ऋक्स॑म॒मित्यृक्ऽस॑मम्। ऋक्स॑मा॒दित्यृक्ऽस॑मात्। शु॒क्रः। शु॒क्रात्। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स॒प्त॒द॒शादिति॑ सप्तऽद॒शात्। वै॒रू॒पम्। ज॒मद॑ग्नि॒रिति॑ ज॒मत्ऽअ॑ग्निः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। चक्षुः॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयम्पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य चक्षुर्वैश्वव्यचसँवर्षाश्चाक्षुष्यः जगती वार्षी जगत्याऽऋक्सममृक्समाच्छुक्रः शुक्रात्सप्तदशः सप्तदशाद्वैरूपञ्जमदग्निरृषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया चक्षुर्गृह्णामि प्रजाभ्यः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। पश्चात्। विश्वव्यचा इति विश्वऽव्यचाः। तस्य। चक्षुः। वैश्वव्यचसमिति वैश्वऽव्यचसम्। वर्षाः। चाक्षुष्यः। जगती। वार्षी। जगत्याः। ऋक्सममित्यृक्ऽसमम्। ऋक्समादित्यृक्ऽसमात्। शुक्रः। शुक्रात्। सप्तदश इति सप्तऽदशः। सप्तदशादिति सप्तऽदशात्। वैरूपम्। जमदग्निरिति जमत्ऽअग्निः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। चक्षुः। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 56
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    भावार्थ -
    ( अयम् ) यह प्रजापति ( पश्चात् ) पश्चिम दिशा में ( विश्व- व्यचा: ) तेज द्वारा समस्त विश्व में फैलने वाले सूर्य के समान है (अस्य) उसका ( चक्षुः ) चक्षु भी ( वैश्वव्यचम् ) विश्व में व्यापक सूर्य के आकाश से जिस प्रकार पुरुष की आँख उत्पन्न होती है उसी प्रकार प्रजापालक परमेश्वर की भी चक्षु सूर्य की बनी हुई है। अर्थात् सूर्य ही अलंकार रूप से ईश्वर की चक्षु है । ( वर्षा : चाक्षुष्यः ) जैसे आंखों से प्रेम-अश्रु बहते हैं उसी प्रकार मानो ये समस्त वर्षाएं सूर्य से उत्पन्न होकर परमेश्वर की से बहते हैं । और राजा के ज्ञानवान् पुरुष ही चक्षु हैं उनके द्वारा चक्षु ही समस्त ऐश्वयों की वृष्टि होती है । ( जगती वार्षी ) यह समस्त सृष्टि वर्षा से ही उत्पन्न होती है । इसी प्रकार राजा के राज्य में सब कारबार विद्वानों द्वारा उत्पादित ऐश्वयों द्वारा ही चलते हैं । ( जगत्याः ऋक् समम् ) जगती छन्द से जिस प्रकार 'ऋकसम' नाम साम की उत्पत्ति है और जगत् की रचना देख कर ज्ञान की प्राप्ति होती है । ( ऋक् समात् शुक्रः ) ऋक् सम नामक साम से जैसे शुक्र 'ग्रह' उत्पन्न होता है । और ज्ञान प्राप्ति के बाद वीर्य शुद्ध बल, उत्पन्न होता है। और जिस प्रकार, ऋक् अर्थात् स्त्री का साम पति है और पति पत्नी के मिलने पर वीर्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार राष्ट्र में ऋक्-सम प्रजा को समान रूप से प्राप्त करके ही राजा को बल प्राप्त होता | ( शुक्रात् सप्तदशः) शुक्र ग्रह से यज्ञ में 'सप्तदश' स्तोम की उत्पत्ति होती | अध्यात्म में वीर्य से सप्तदश नाम आत्मा के शरीर उत्पत्ति होती है । राजा प्रजा के बल से १७ अंगों वाले सप्तदशाङ्ग राज्य और उसपर स्थित राजा की उत्पत्ति होती है। (सप्तदशात् वैरूपम्) सप्तदश नाम आत्मा से ही रूप अर्थात् विविध जीवसृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। साम में सप्तदश स्तोम से वैरूप नाम 'पृष्ठ' का उदय होता है । राष्ट्र में, सप्त दश अङ्गों से युक्त राजा के द्वारा राज्य की विविध रचना होती है । ( जमदग्निः ऋषिः ) यह चक्षु सूर्य ही जमदग्नि है, वही सब का द्रष्टा है । परमेश्वर उसी द्वारा जगत् को देखता और उसी से देख कर उनको वश करता है। इस शरीर में चक्षु वही जमदग्नि है। राष्ट्र में सर्वोपरि द्रष्टा पुरुष ही जगमदसि है । ( प्रजापति गृहीतया त्वया ) प्रजा के पालक परमेश्वर द्वारा स्वीकार की गई पत्नी के समान तुझ निर्मात्री शक्ति से, एवं देह में आत्मा द्वारा प्राप्त चितिशक्ति से, राष्ट्र में राज्य शक्ति से मैं ( प्रजाभ्यः चक्षुः ) प्रजाओं को चक्षु को (ग्रहणामि) अपने वंश करता हूं । शत० ८।१।२।१-३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । निचृद्धृतिः । षड्जः ॥

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