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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वि यदहे॒रध॑ त्वि॒षो विश्वे॑ दे॒वासो॒ अक्र॑मुः । वि॒दन्मृ॒गस्य॒ ताँ अम॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । यत् । अहे॑ । अध॑ । त्वि॒षः । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अक्र॑मुः । वि॒दत् । मृ॒गस्य॑ । तान् । अमः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि यदहेरध त्विषो विश्वे देवासो अक्रमुः । विदन्मृगस्य ताँ अम: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । यत् । अहे । अध । त्विषः । विश्वे । देवासः । अक्रमुः । विदत् । मृगस्य । तान् । अमः ॥ ८.९३.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When all the divine perceptive senses and conceptive faculties of the mind rise to fight the dark powers of evil, Indra, the soul, the higher mind, realises the fierce powers of evil and stirs:

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मस्तक सर्व अंगांना इतके बल देते, की कुटिल भावना किंवा इतर घातक उपसर्गापासून वाचण्यासाठी चेतनेचे केंद्र मस्तक बलवान झाले पाहिजे. ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अध) इसके बाद (यत्) जब (विश्वे) सभी (देवासः) दिव्य अङ्ग (अहेः) सर्प जैसी कुटिल भावना की (त्विषः) प्रचण्डता को (वि अक्रमुः) लाँघ जाते हैं, उन पर विजय पा लेते हैं तब तू (तान्) उन्हें (मृगस्य) शिकार करने वाले पशु, सिंह का उसके बल के तुल्य (अमः) बल (विदन्) दे देता है॥१४॥

    भावार्थ

    मस्तिष्क द्वारा सभी अङ्गों को इतना बल मिलता है कि कुटिल भावनायें या दुर्बलता, रोग इत्यादि उपसर्ग उन्हें पीड़ित नहीं करते। रोग या अन्य घातक उपसर्गों से बचने हेतु चेतना का केन्द्र मस्तिष्क शक्तिशाली होना चाहिये॥१४॥

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    ( अध ) और ( यद् ) जब ( विश्वे देवासः ) सब विद्वान् तेजस्वी लोग ( अहेः त्विषः ) मेघ की विद्युत् कान्तियों वा (अहेः त्विषः ) सूर्य की कान्तियों के सदृश ( अहे: त्विषः ) आगे बढ़ते वीर के तेजों को ( अक्रमुः ) प्राप्त करते हैं अब ( तान् ) उनको ( मृगस्य ) सिंह के समान वीर वा अति शुद्ध तेजस्वी प्रभु का ( अमः ) बल ( विदत् ) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    मृग के अम की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (विश्वे देवास:) = सब देववृत्ति के पुरुष (यद्) = जब (अहे:) = आहनन करनेवाले इस वृत्रासुर की, वासना की (त्विषः) = दीप्तियों को (वि अक्रमुः) = विशेषरूप से आक्रान्त करते हैं, (अध) = तो अब (तान्) = उन देवों को (मृगस्य) = उस अन्वेषणीय प्रभु का (अम:) = बल (विदत्) = प्राप्त होता है। [२] वासना को जीतकर ही हम अपने अन्दर प्रभु के प्रकाश को देखनेवाले बनते हैं। वासना ज्ञान पर परदे के रूप में पड़ी रहती है, इसी से यह 'वृत्र' कहलाती है। इसका नाश हुआ प्रभु का और प्रकाश हुआ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देव लोग वासना की दीप्ति को आक्रान्त करके प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनते हैं।

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