ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 26
आ ते॒ दक्षं॒ वि रो॑च॒ना दध॒द्रत्ना॒ वि दा॒शुषे॑ । स्तो॒तृभ्य॒ इन्द्र॑मर्चत ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । दक्ष॑म् । वि । रो॒च॒ना । द॒ध॒त् । रत्ना॑ । वि । दा॒शुषे॑ । स्तो॒तृऽभ्यः । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते दक्षं वि रोचना दधद्रत्ना वि दाशुषे । स्तोतृभ्य इन्द्रमर्चत ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । दक्षम् । वि । रोचना । दधत् । रत्ना । वि । दाशुषे । स्तोतृऽभ्यः । इन्द्रम् । अर्चत ॥ ८.९३.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of light, refulgent and glorious stars and planets such as sun, earth and moon bear your power and potential and they bear the jewels of life for the generous yajamana. O celebrants, celebrate Indra and pray for the devotees that the lord may bless.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य, चंद्र, पृथ्वी व इतर रुचकर पदार्थांमध्ये जे बल आहे ते परमेश्वराचेच बल आहे. या पदार्थांना आपल्या प्रयोगात आणणारा भक्त उपासक त्यांच्याकडून जे बल प्राप्त करतो ते परमात्म्याचेच बल आहे. ईश्वराची अर्चा यासाठी केली जाते, की पूजक व्यक्ती एक उत्तम स्तोता बनावा. ॥२६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे प्रभु! (रत्ना) जीव को आनन्द देने वाले (विरोचना) विशेष दीप्तिमान् सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि (ते दक्षम्) आप के बल व सामर्थ्य को ही (दाशुषे) आत्मसमर्पक भक्त हेतु (विदधत्) विविध रूप में धारण करते हैं। हे मनुष्यो! (स्तोतृभ्यः) स्तोता के लाभ के लिए (इन्द्रम्) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु की (अर्चत) वन्दना करो॥२६॥
भावार्थ
सूर्य, चन्द्र, पृथिवी एवं अन्य रुचिकर पदार्थों में जो शक्ति है वह प्रभु की ही है। इन पदार्थों को स्व प्रयोग में लाने वाला भक्त उपासक इनसे जो बल पाता है वह परमात्मा का ही है। भगवान् की अर्चना इसीलिये की जाती है कि पुरुष उत्तम स्तोता बने॥२६॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( दाशुषे ते ) दानशील तेरा ही (दक्षं) तेज, बल, प्रताप और ज्ञानसामर्थ्य (आ) सब ओर है। वह इन्द्र, ऐश्वर्यवान् ( रोचना रत्ना विदधत्) रुचिकर, तेजोयुक्त नाना उत्तम रत्न, धन, ऐश्वर्य ( स्तोतृभ्यः ) विद्वानों को विशेष रूप से देता वा उनके लिये स्वयं धारण कराता है। आप लोग हे विद्वानो ! उसी (इन्द्रम् अर्चत) ऐश्वर्यवान् पुरुष की स्तुति करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
दक्षं- रत्ना
पदार्थ
[१] वह प्रभु ही (ते) = तेरे लिये (दक्षम्) = बल को (आ दधत्) = अंग-प्रत्यंग में धारण करता है। प्रभु ही (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिये तथा (स्तोतृभ्यः) = सब स्तवन करनेवालों के लिये (विरोचना) = विशिष्ट दीप्तिवाले (रत्ना) = रमणीय धनों को (विदधत्) = विशेषरूप से स्थापित करता है। [२] इसलिए हे स्तोताओ ! तुम (इन्द्रं अर्चत) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का ही अर्चन करो। प्रभु की अर्चना ही तुम्हें बल व रत्नों को प्राप्त करायेगी ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की अर्चना करते हुए हम बल व रमणीय रत्नों [धनों] को प्राप्त करें। सदा दानशील बनें।
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