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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य । सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । कत् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । उ॒त्ऽअगाः॑ । अ॒भि । सू॒र्य॒ । सर्व॑म् । तत् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । वशे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अद्य । कत् । च । वृत्रऽहन् । उत्ऽअगाः । अभि । सूर्य । सर्वम् । तत् । इन्द्र । ते । वशे ॥ ८.९३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O sun, dispeller of darkness, whatever the aim and purpose for which you rise today, let that be, O Indra, lord ruler of the world, under your command and control.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य मेघाला छिन्नभिन्न करतो तशी माणसाची प्रज्ञा तामस वृत्ती नष्ट करते. माणसाने असा संकल्प करावा त्याची प्रज्ञा तामस वृत्ती नष्ट करण्यास उद्युक्त झाली, की ताबडतोब तिला नष्ट करावी. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (वृत्रहन् सूर्य) मेघहन्ता सूर्य के तुल्य तामस वृत्तियों की विध्वंसक मेरी परमेश्वर प्रेरित प्रज्ञे! (अद्य) आज (यत्, कत्, च) जिस किसी को (अभि) लक्ष्य कर (उत् अगाः) तेरा उदय हुआ हो, (इन्द्र) हे मेरी प्रज्ञे! (सर्वम् तत्) वह सब (ते) तेरे (वशे) अधीन हो॥४॥

    भावार्थ

    सूर्य द्वारा मेघ छिन्न-भिन्न किए जाते हैं; ऐसे ही मानव की प्रज्ञा, तामस वृत्तियों को काटती है; मनुष्य संकल्प करे कि उसकी प्रज्ञा जिस तामस वृत्ति को नष्ट करने हेतु उद्यत हो तभी वह उसको सफलतापूर्वक काटे॥४॥

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( वृत्रहन्) विघ्नों के नाशक ! (अध यत् कत् च अभि उत् अगाः ) जिस किसी को भी लक्ष्य कर तू आज वा कभी उठ खड़े होने में समर्थ है वह जब चाहे, तू किसी भी पदार्थ को उत्तम रीति से प्राप्त कर सकता है। ( तत् सर्वं ते वशे ) वह सब कुछ तेरे ही वश में है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    इन्द्र, वृत्रहन्, सूर्य

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले व (सूर्य) = सूर्य की तरह निरन्तर क्रियाशील जीव ! (यद्) = जब (अद्य कत् च) = आज या जब भी कभी तू (उत्) = प्रकृति से ऊपर उठकर (अभि अगा:) = मेरी ओर आता है तो (तत् सर्वम्) = वह सब, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (ते वशे) = तेरी इच्छा पर ही निर्भर करता है। तू दृढ़ संकल्प करेगा, वासनाओं को विनष्ट कर ज्ञानरस से दीप्त जीवनवाला बनेगा तो अवश्य मेरी ओर [प्रभु की ओर] आनेवाला होगा। [२] प्रभु की ओर आने पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (तत् सर्वम्) = वह सब (ते वशे) = तेरे वश में होगा। प्रभु को प्राप्त कर लेने पर सब जगत् के पदार्थ तो प्राप्त हो ही जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति का दृढ़ संकल्प करें। यह संकल्प हमें वासना विनाश में प्रवृत्त करेगा और तब हमारे जीवन में वासनाओं के मेघों का विलय होकर ज्ञानसूर्य का उदय होगा।

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