ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 20
कस्य॒ वृषा॑ सु॒ते सचा॑ नि॒युत्वा॑न्वृष॒भो र॑णत् । वृ॒त्र॒हा सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठकस्य॑ । वृषा॑ । सु॒ते । सचा॑ । नि॒युत्वा॑न् । वृ॒ष॒भः । र॒ण॒त् । वृ॒त्र॒ऽहा । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्य वृषा सुते सचा नियुत्वान्वृषभो रणत् । वृत्रहा सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठकस्य । वृषा । सुते । सचा । नियुत्वान् । वृषभः । रणत् । वृत्रऽहा । सोमऽपीतये ॥ ८.९३.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In whose soma yajna does Indra, generous giver of showers of joy, master of cosmic dynamics, virile all creative, destroyer of darkness, want and suffering, take delight as a friend and participate in the creation, protection and promotion of the soma joys of life?
मराठी (1)
भावार्थ
सुखस्वरूप परमप्रभूच सर्व सुखांचा वर्षक आहे. त्याच्याशी संयुक्त होऊनच साधक जगात आनंदित होतो; परंतु तोही तेव्हाच जेव्हा त्याच्या शक्ती विघ्नबाधा दूर करण्यास साह्य करतात. ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नियुत्वान्) शुभगुणों से युक्त या अपनी वाहक शक्ति से युक्त, (वृषभः) इसीलिये बलवान् तथा श्रेष्ठ (वृत्रहा) विघ्न नष्ट करने के सामर्थ्यवाला साधक मन (सोमपीतये) दिव्य आनन्दरस का पान करने हेतु (वृषा) सर्वप्रकार के सुख देने वाले (कस्य) सुखस्वरूप प्रभु के (सुते) उत्पादित संसार में उसके (सचा) संयोग से (रणत्) रमण करता है॥२०॥
भावार्थ
सुखस्वरूप प्रभु ही सर्वसुखों के दाता हैं; उनसे संयुक्त होकर साधक संसार में आनन्दित होता है; परन्तु वह भी तभी जब कि उसकी अपनी शक्ति बाधाओं को दूर करने में उसका साथ दे॥२०॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( नियुत्वान् ) अश्व सैन्यों का स्वामी, ( बृषभः ) बलवान् ( वृत्र-हा ) शत्रुहन्ता, ( वृषा ) उत्तम प्रबन्धकर्ता, ( कस्य सुते ) किस के ऐश्वर्य पर ( सचा ) और किस के सहयोग में ( सोम-पीतये ) ऐश्वर्य के प्राप्ति और रक्षा के कार्य में ( रणत् ) रण करे और आनन्द लाभ करे। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
कस्य सचा
पदार्थ
[१] [सच्=To honour, To assist ] (कस्य) = उस आनन्दमय प्रभु के पूजन व सहाय से [सचा - सच्] (सुते) = शरीर में सोम का सम्पादन होने पर यह उपासक (वृषा) = अंग-प्रत्यंग में उस सोम का सेचन करनेवाला होता है। यह (नियुत्वान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला, (वृषभ:) = शक्तिशाली बनकर (रणत्) = प्रभु-स्तवन में रमण करता है। [२] इस प्रभु-पूजन से ही यह (वृत्रहा) = वासना को विनष्ट करनेवाला होता हुआ (सोमपीतये) = सोम के पान (रक्षण) के लिये समर्थ होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-पूजन हमें वासनाओं को जीतने व सोमरक्षण में समर्थ करता है। सोमरक्षण द्वारा शक्तिशाली व प्रशस्तेन्द्रिय बनकर यह और भी अधिक प्रभु-स्तवन में रमण करनेवाला होता है।
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