ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 2
नव॒ यो न॑व॒तिं पुरो॑ बि॒भेद॑ बा॒ह्वो॑जसा । अहिं॑ च वृत्र॒हाव॑धीत् ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ । यः । न॒व॒तिम् । पुरः॑ । बि॒भेद॑ । बा॒हुऽओ॑जसा । अहि॑म् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒व॒धी॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा । अहिं च वृत्रहावधीत् ॥
स्वर रहित पद पाठनव । यः । नवतिम् । पुरः । बिभेद । बाहुऽओजसा । अहिम् । च । वृत्रऽहा । अवधीत् ॥ ८.९३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra who breaks off the nine and ninty strongholds of darkness, ignorance and suffering by the force of his lustrous arms and, as the dispeller of darkness, destroys the crooked serpentine evil of the world:
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा साधक आपल्या मननशक्तीने दुर्भावना, रोग इत्यादी विघ्नांना दूर करतो तेव्हा त्याची ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये निर्विघ्न होऊन समृद्धीचे अर्जन करतात. ॥२,३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जिस इन्द्र अर्थात् मानव की प्रज्ञा ने (बाह्वोजसा) अपने दूर-दूर तक प्रभावशाली ओज से (नव नवतिम्) ९x९०=८१० अर्थात् अनेक (पुरः) शत्रुभावनाओं की बस्तियों को विभेद छिन्न-भिन्न किया और उस (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य के तुल्य (अहिम्) सर्प-जैसी दुष्टभावनाओं तथा रोगादि का (अवधीत्) उन्मूलन किया (सः) वह (नः) हमारी (शिवः) कल्याणकारिणी, (सखा) मित्र (इन्द्रः) प्रजा (अश्वावत्) कर्मबलयुक्त (गोमत्) ज्ञानबलयुक्त (यवमत्) और दोनों के मिश्रणभूत फल को (उरुधारेव) बड़ी विशालधाराओं में ही (दोहते) दूध के तुल्य प्रदान करती है॥२, ३॥
भावार्थ
साधक जब अपनी मननशक्ति द्वारा दुर्भावना, रोग आदि विघ्नों को दूर कर दे तो उसकी कर्मेन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ निर्विघ्न हो समृद्धि अर्जित करती हैं॥२,३॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( यः ) जो ( बाह्वोजसा ) बाहु के पराक्रम से ( नव-नवतिं ) ९९ ( पुरः ) प्रकोटों को ( बिभेद ) तोड़ने में समर्थ है वह ( वृत्र-हा ) शत्रुनाशक राजा ( अहिं च अवधीत् ) सूर्य को मेघ के समान सन्मुख शत्रु को नाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
नवनवति पुरियों का भेदन
पदार्थ
[१] प्रभु वे हैं (यः) = जो (बाह्वोजसा) = बाहुओं के पराक्रम से (नवनवतिम्) = निन्यानवे (पुर:) = असुरों की पुरियों को, अनेकों आसुरभावों को बिभेद विदीर्ण कर देते हैं। [२] (च) = और (वृत्रहा) = वासनाओं को नष्ट करनेवाले वे प्रभु (अहिम्) = इस (आहन्ता) = कामरूप शत्रु का (अवधीत्) = वध कर डालते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही असुरों की पुरियों का विध्वंस करते हैं। वे ही विनाशक वासनाओं का विलय करते हैं।
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