ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 17
अ॒या धि॒या च॑ गव्य॒या पुरु॑णाम॒न्पुरु॑ष्टुत । यत्सोमे॑सोम॒ आभ॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒या । धि॒या । च॒ । ग॒व्य॒ऽया । पुरु॑ऽनामन् । पुरु॑ऽस्तुत । यत् । सोमे॑ऽसोमे । आ । अभ॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अया धिया च गव्यया पुरुणामन्पुरुष्टुत । यत्सोमेसोम आभवः ॥
स्वर रहित पद पाठअया । धिया । च । गव्यऽया । पुरुऽनामन् । पुरुऽस्तुत । यत् । सोमेऽसोमे । आ । अभवः ॥ ८.९३.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, O higher mind, O soul, O awareness of divinity, who are adored by many, celebrated by many many names in many ways, arise in every person in every soma yajna by with virtue of this intelligence, this knowledge and this awareness which nature has given to every person.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञान, बल इत्यादी ऐश्वर्याच्या इच्छुकाने आपले मस्तक जागरूक ठेवावे. ज्ञान प्राप्त करण्याची व प्रेरणा देण्याची अशा दोन्ही प्रकारच्या शक्तींची साथ कधी सोडता कामा नये. ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (पुरुणामन्) बहुत नामों से विख्यात! (पुरुष्टुत) अनेकों से स्तुत मेरी मननशक्ति! (अया) इस रीति से (च) एवं (गव्यया) ज्ञान या प्रबोध इच्छुक (धिया) कर्तृत्व बुद्धि के साथ (सोमे सोमे) प्रत्येक ऐश्वर्य के इच्छुक व्यक्ति में (आभवः) अपने अस्तित्व को प्रकटे॥१७॥
भावार्थ
ज्ञान, बल तथा ऐश्वर्य इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति अपने मस्तिष्क को ऐसा जागरूक बनाए कि ज्ञान प्राप्त करने व प्रेरणा देने की--दोनों प्रकार की शक्तियों को सदैव साथ रखे॥१७॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
हे ( पुरु-नामन् ) बहुत से नामों वाले ! बहुतों को नमाने हारे ! हे ( पुरु-स्तुत ) बहुतों से स्तुति करने योग्य ! ( यत् ) जो ( सोमे-सोमे ) प्रत्येक 'सोम', ऐश्वर्य प्रत्येक जीव और प्रत्येक बल पर ( आभवः ) सामर्थ्यवान् है उस तुझे हम ( अया ) इस ( गव्यया धिया च ) वाणी से युक्त क्रिया द्वारा तेरी सेवा करते हैं। अर्थात् जैसी तेरी आज्ञा हो वा जैसी हमारी वाणी हो तदनुसार हम कार्य पूरा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
गव्या धी
पदार्थ
[१] हे (पुरुणामन्) = अनन्त स्तोत्रोंवाले, पुरुष्टुत खूब ही स्तुति किये गये प्रभो ! (यत्) = जब (सोमे सोमे) = सोमकणों के रक्षित होने पर आप (आभवः) = [भू प्राप्तौ ] हमें प्राप्त होते हैं, तो (च) = निश्चय से (अया) = इस (गव्यया) = ज्ञान की वाणियों की कामनावाली (धिया) = बुद्धि से हमें प्राप्त होते हैं। आप हमारे लिये उस बुद्धि को प्राप्त कराते हैं, जो ज्ञान की वाणियों की कामनावाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के स्तोत्रों का गायन करें। यह गायन हमें ज्ञान की वाणियों की रुचिवाली बुद्धि को प्राप्त करायेगा।
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