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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 9
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    गि॒रा वज्रो॒ न सम्भृ॑त॒: सब॑लो॒ अन॑पच्युतः । व॒व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रा । वज्रः॑ । न । सम्ऽभृ॑तः । सऽब॑लः । अन॑पऽच्युतः । व॒व॒क्षे । ऋ॒ष्वः । अस्तृ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरा वज्रो न सम्भृत: सबलो अनपच्युतः । ववक्ष ऋष्वो अस्तृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरा । वज्रः । न । सम्ऽभृतः । सऽबलः । अनपऽच्युतः । ववक्षे । ऋष्वः । अस्तृतः ॥ ८.९३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Held in and by the voice of divinity like the roar of thunder and like the flood of sun-rays, it is powerful, unfallen, irrepressible and lofty with thought, so let it express itself freely.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदवाणीत परमेश्वराच्या गुणकीर्तनाने मन समाहित होऊन कुटिलतेबरोबर संघर्ष करण्यासाठी असे कठोर होते, की जसे वज्रच समाहित मन, बलवान व दृढ बनते. याप्रकारे एकाग्र मनाद्वारे कुटिलता नष्ट केली जाऊ शकते. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वज्रः न) युद्ध या संघर्ष के कठोर साधन के तुल्य (गिरा) वेदवाणी से (सम्भृतः) कठोर अर्थात् समाहित अनन्यवृत्ति हुआ (सबलः) बलवान्; (अनपच्युतः) कुटिल वृत्तियों द्वारा अपने स्थान से न गिराया गया; (ऋष्वः) ज्ञान हेतु (अस्तृतः) अबाधित मन (ववक्षे) अपने कार्य को निबाहे॥९॥

    भावार्थ

    वेद में भगवान् के गुणकीर्तन से मन समाहित हो कुटिलताओं से लोहा लेने के लिये ऐसा ही कठोर हो जाता है जैसा कि वज्र। समाहित मन, बलवान् व अडिग बन जाता है। इस भाँति एकाग्रमन से ही कुटिलताओं का अपहार हो सकता है॥९॥

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    ( वज्रः न ) शत्रु के समान अति तीक्ष्ण ( गिरा सम्भृतः ) वाणी द्वारा अच्छी प्रकार धारित, एवं ( स-बलः ) बलशाली, (अनपच्युतः ) शत्रुओं से अपराजित, ( अस्तृतः ) अबाधित, ( ऋक्षः ) महान् ( ववक्ष ) समस्त ऐश्वर्य पद को धारण करता है। ( २ ) प्रभु ( अनपच्युतः ) अप्राप्य, अवाङ्मनसगोचर है। वह ( ववक्ष ) समस्त जगत को धारण कर रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    गिरा संभृतः वज्रो न

    पदार्थ

    [१] (गिरा) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति-वाणियों के द्वारा (सम्भृतः) = सम्यक् धारण किया गया यह प्रभु (वज्रः न) = उपासक के लिये वज्र के समान होता है। उपासक इस प्रभुरूप वज्र के द्वारा ही काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला होता है। वे प्रभु (सबलः) = सदा शक्ति के साथ वर्तमान हैं और (अपच्युतः) = कभी भी शत्रुओं द्वारा स्थानभ्रष्ट नहीं किये जाते। [२] ये (ऋष्वः) = महान् (अस्तृतः) = अहिंसित प्रभु (ववक्षे) = स्तोताओं के लिये धन आदि साधनों को प्राप्त कराने की कामनावाले होते हैं। इन साधनों को प्राप्त करके साधक उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तुति के द्वारा सम्भृत प्रभु स्तोता के हाथ में वज्र के समान होते हैं। वे सबल प्रभु शत्रुओं से च्युत नहीं किये जा सकते। ये महान् अहिंसित प्रभु ही स्तोता के लिये सब साधनों को प्राप्त कराते हैं।

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