ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
ये सोमा॑सः परा॒वति॒ ये अ॑र्वा॒वति॑ सुन्वि॒रे । सर्वाँ॒स्ताँ इ॑न्द्र गच्छसि ॥
स्वर सहित पद पाठये । सोमा॑सः । प॒रा॒ऽवति॑ । ये । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । सु॒न्वि॒रे । सर्वा॑न् । तान् । इ॒न्द्र॒ । ग॒च्छ॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे । सर्वाँस्ताँ इन्द्र गच्छसि ॥
स्वर रहित पद पाठये । सोमासः । पराऽवति । ये । अर्वाऽवति । सुन्विरे । सर्वान् । तान् । इन्द्र । गच्छसि ॥ ८.९३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, O dynamic intelligence, protector of the knowledge of truth and reality, whatever somas of knowledge, culture and enlightenment are distilled either far away or close at hand, pray you move there to record and protect them for us.
मराठी (1)
भावार्थ
दूर देशात किंवा जवळच्या देशात आता किंवा पूर्वी अथवा नंतर पदार्थांचा जो बोध झाला होता किंवा होईल तो सर्व आमच्या प्रज्ञेलाच प्राप्त होईल. प्रज्ञा ही पदार्थबोधाला वहन करते. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जो (सोमासः) अर्जित पदार्थबोध (परावति) दूरस्थकाल या देश में और (ये) जो पदार्थबोध (अर्वावति) समीपस्थ काल या प्रदेश में (सुन्विरे) सम्पन्न किये गये हों (ता) उनको, हे (इन्द्र) प्रज्ञे! तू (गच्छसि) प्राप्त होती है॥६॥
भावार्थ
दूरस्थ देश अथवा समीपस्थ देश में अभी अथवा बहुत पहले या बाद में पदार्थों का जो भी बोध प्राप्त हुआ, या होता है अथवा होगा--वह सब हमारी प्रज्ञा को ही प्राप्त होगा क्योंकि प्रज्ञा ही पदार्थबोध को वहन करती है॥६॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( ये ) जो ( परावति ) दूर देश में और ये ( अर्वावति ) समीप देश में भी ( सोमासः ) अन्न, औषधि वर्ग, रत्नादि ऐश्वर्य ( सु-न्विरे ) उत्पन्न हों, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( तान् सर्वान् गच्छसि ) उन सब को प्राप्त कर ( २ ) पास और दूर के सब उत्पन्न बालकों को आचार्य पढ़ावे। ( ३ ) पास दूर सब जीव वा लोकगण प्रभु को प्राप्त हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
सोमासः परावति
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार अपने अमरत्व को पहचानने पर तथा विषयों की तुच्छता को समझने पर (ये) = जो (सोमासः) = सोमकण (परावति) = उस सुदूर मस्तिष्करूप द्युलोक के निमित्त (सुन्विरे) = उत्पन्न किये गये हैं, अथवा (ये) = जो (अर्वावति) = समीपस्थ इस शरीररूप पृथिवीलोक के निमित्त उत्पन्न किये गये हैं, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (तान् सर्वान्) = उन सब सोमकणों को गच्छसि = प्राप्त होता है। [२] अपने अमरत्व को समझकर, विषयों से ऊपर उठने पर ही सोमकणों का रक्षण होता है। इनके रक्षण से ही मस्तिष्करूप द्युलोक दीप्त तथा शरीररूप पृथिवीलोक दृढ़ बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने को अमर जानें। विषयों की तुच्छता को पहचानें। सोमकणों का रक्षण करते हुए मस्तिष्क को दीप्त बनायें तथा शरीर को दृढ़ करें।
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