अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
स॒प्त त्वा॑ ह॒रितो॒ रथे॒ वह॑न्ति देव सूर्य। शो॒चिष्के॑शं विचक्ष॒णम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । त्वा॒ । ह॒रित॑: । रथे॑ । वह॑न्ति । दे॒व॒ । सू॒र्य॒ । शो॒चि:ऽके॑शम् । वि॒ऽच॒क्ष॒णम् ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य। शोचिष्केशं विचक्षणम् ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । त्वा । हरित: । रथे । वहन्ति । देव । सूर्य । शोचि:ऽकेशम् । विऽचक्षणम् ॥२.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(देव सूर्य) हे द्युतिमान सूर्य! (सप्त हरितः) सात किरणें, (शोचिष्केशम्) पवित्र या प्रकाशमयी रश्मियों वाले, (विचक्षणम्) द्रष्टा (त्वा) तुझे (रथे वहन्ति) रथ में वहन करती हैं।
टिप्पणी -
["त्वा रथे" या "सूर्य रथे" में सूर्य और रथ अर्थात् सूर्य और सूर्यपिण्ड में भेद दर्शाया है। यह भेद वैकल्पिक है, कविता रूप में है। केशम्= केशा रश्मय, काशनाद्वा प्रकाशनाद्वा (निरुक्त १२।३।२६)। विचक्षणम्; विचष्टे पश्यतिकर्मा (निघं० ३।११)। तथा विचक्षते= विपश्यन्ति (निरुत् १२।३।२८)। सप्त= शुभ्र रश्मि के फटने पर उत्पन्न सात रश्मियां, जो कि ईन्द्रधनुष में दृष्टिगोचर होती हैं। अथवा हे परमेश्वर! प्रत्याहार रूपी योगाङ्ग सम्पन्न ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि- ये सात, शरीर रथ में, पवित्र या प्रकाशमयी किरणों वाले, सर्वद्रष्टा तुझ को वहन करते हैं, मुझे प्राप्त कराते हैं। वह प्रापणे। सूर्य =परमेश्वर (अथर्व० १३।४ (१)।५)]।