अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 33
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
ति॒ग्मो वि॒भ्राज॑न्त॒न्वं शिशा॑नोऽरंग॒मासः॑ प्र॒वतो॒ ररा॑णः। ज्योति॑ष्मान्प॒क्षी म॑हि॒षो व॑यो॒धा विश्वा॒ आस्था॑त्प्र॒दिशः॒ कल्प॑मानः ॥
स्वर सहित पद पाठति॒ग्म: । वि॒ऽभ्राज॑न् । त॒न्व᳡म् । शिशा॑न: । अ॒र॒म्ऽग॒मास॑: । प्र॒ऽवत॑: । ररा॑ण: । ज्योति॑ष्मान् । प॒क्षी । म॒हि॒ष: । व॒य॒:ऽधा: । विश्वा॑: । आ । अ॒स्था॒त् । प्र॒ऽदिश॑: । कल्प॑मान: ॥२.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
तिग्मो विभ्राजन्तन्वं शिशानोऽरंगमासः प्रवतो रराणः। ज्योतिष्मान्पक्षी महिषो वयोधा विश्वा आस्थात्प्रदिशः कल्पमानः ॥
स्वर रहित पद पाठतिग्म: । विऽभ्राजन् । तन्वम् । शिशान: । अरम्ऽगमास: । प्रऽवत: । रराण: । ज्योतिष्मान् । पक्षी । महिष: । वय:ऽधा: । विश्वा: । आ । अस्थात् । प्रऽदिश: । कल्पमान: ॥२.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 33
भाषार्थ -
(तिग्मः) तीक्ष्ण रश्मियों वाला, (विभ्राजन) विशेष दीप्ति वाला, (तन्वम् शिशानः) निज़ शरीर को तेज करता हुआ, (अरङ्गमासः) पर्याप्त दूरी तक पहुंचे हुओं को प्रदीप्त करने वाला, (प्रवतः) गहरे प्रदेशों तक (रराणः) पहुंचा हुआ या रमा हुआ, (ज्योतिष्मान्) ज्योतिवाला, (पक्षी) पक्षी के सदृश प्रकाश में उड़ने वाला (महिषः) महान् (वयोधाः) अन्न और आयु को परिपुष्ट करने याला (विश्वाः प्रदिशः) सब दिशाओं और उपदिशाओं का (कल्पमानः) निर्माण करता हुआ (आस्थात्) सूर्य स्थित है।
टिप्पणी -
[अरंगमासः= अरम् (पर्याप्त) + गम + अस् (दीप्तौ)। प्रवतः= गहरे या दूर तक फैले हुए प्रदेशों तक सूर्यपिण्ड अपनी रश्मियों द्वारा पहुंचता उन्हें प्रकाशित करता है। रराणः= रणगतौ या रममाण। आस्थात्=पक्षी के सदृश उड़ता प्रतीत होता हुआ भी सूर्यपिण्ड स्थिर है। अस गति दीप्त्यादानेषु (भ्वादि)। ग्रह, सूर्य से बहुत दूर हैं, उन्हें भी सूर्य प्रदीप्त करता है]।