अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ । स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥२.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य । सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥२.३८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 38
भाषार्थ -
(स्वर्गम्, पततः) स्वर्ग की ओर उड़ते हुए, (हरेः) सौरपरिवार का हरण करते हुए, उसे अपने साथ लिये हुए, (अस्य हंसस्य) इस हंस अर्थात् सूर्य के (पक्षौ) दोनों पंख, (सहस्राह्ण्यम्) हजारों दिनों से (वियतौ) विशेष रूप में प्रयत्न शील हैं। (सः) वह हंस (सर्वान्) सब (देवान्) सौरपरिवार के ग्रह-उपग्रह आदि को (उरसि) अपनी छाती में (उपदद्य) दे कर अर्थात् धारित कर के, (संपश्यन्) देखता हुआ, (विश्वा भुवनानि) मार्गवर्ती सब भुवनों को (याति) पहुंचता है।
टिप्पणी -
[वियतौ = वि + यती (प्रयत्ने) + क्विप् + प्रथमा द्विवचन। हरेः= हञ् हरणे, ले चलना। हंसस्य = सूर्यस्य। हन्ति अन्धकारं, सनोति ददाति च प्रकाशम्; हन् + षणु (दाने) +डः (औणादिक प्रत्यय)। उप दद्य= उप + दद् (दाने)। संपश्यन् = कविता में, या निज अधिष्ठातृ-परमेश्वर की दृष्टि से। स्वर्गं पततः= स्वर्ग कौन सा स्थान है जिस की ओर सूर्य-हंस हजारों दिनों से उड़ता जा रहा है, कहा नहीं जा सकता। वर्तमान काल के पाश्चात्य ज्योतिषी कहते हैं कि उत्तर दिशा में एक तारा है जिसे VEga (Alpha Lyrae) कहते हैं, जो कि वीणा मण्डल में है, उस की ओर सपरिवार-सूर्य गति कर रहा है, और यह VEGA तारा पृथिवी से २६ प्रकाश-वर्षो की दूरी पर है। एक "प्रकाश-वर्ष" = ५,८८०,००० मिलियन मील। वीणामण्डल (Lyra Constillation) हरकुलीज मण्डल के पूर्व में, तथा आकाश गङ्गा के पश्चिम में है। एक "प्रकाश-वर्ष" का अभिप्राय है कि प्रकाश की किरणें एक वर्ष में जितना मार्ग चलती हैं। सम्भवतः मन्त्र का वर्णन केवल कविता मात्र ही हो]। [परमेश्वर पक्ष में हंसः = The supreme soul Brahman (आप्टे) धात्वर्थ की दृष्टि से "हन्ति, प्रज्ञानान्धकारम्, सनोति ददाति च ज्ञानप्रकाशमिति हंसः। सहस्राह्ण्यम्= हजारों दिनों की व्याप्ति में। परमेश्वर पक्ष में हजार युगों को एक दिन कहा है। यथा "तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदु" (ऋ० भा० भूमिका, महर्षि दयानन्द, वेदोत्पत्ति विषय)। हजार युगों की रात्रि भी कही है "रात्रि च तावतीमेव"। ब्राह्म दिन-रात रूपी सर्ग और प्रलय, परमेश्वर-पक्षी के दो पक्ष अर्थात् पंख हैं। इन पंखों द्वारा परमेश्वर-पक्षी मानो उड़ान कर रहा है। स्वर्ग है असीम- आकाश। सर्वान् देवान्= संसार के सब द्योतमान सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण आदि। यह ब्रह्माण्ड फैलता जा रहा है असीम-आकाश में। वेद में दिन-रात को परमेश्वर के दो पार्श्व कहे हैं, यथा "अहोरात्रे पार्श्वे" (यजु० ३१।३२)। परमेश्वर का वर्णन जब पक्षी रूप में होगा, तब दो पार्श्व, पक्षरूप ही होंगे। सहस्राह्ण्यम् में "अहः" शब्द द्वारा दिन और रात अभिप्रेत हैं। यथा “अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च" (ऋ० ६।९।१) तथा निरुक्त (२।६।२१) । "अहश्च कृष्णं रात्रिः, शुक्लं चाहरर्जुनम्"।]