अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
वि॑प॒श्चितं॑ त॒रणिं॒ भ्राज॑मानं॒ वह॑न्ति॒ यं ह॒रितः॑ स॒प्त ब॒ह्वीः। स्रु॒ताद्यमत्त्रि॒र्दिव॑मुन्नि॒नाय॒ तं त्वा॑ पश्यन्ति परि॒यान्त॑मा॒जिम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒प॒:ऽचित॑म् । त॒रणि॑म् । भ्राज॑मानम् । वह॑न्ति । यम् । ह॒रित॑: । स॒प्त । ब॒ह्वी: । स्रु॒तात् । यम् । अत्त्रि॑: । दिव॑म् । उ॒त्ऽनि॒नाय॑ । तम् । त्वा॒ । प॒श्य॒न्ति॒ । प॒रि॒ऽयान्त॑म् । आ॒जिम् ॥2.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विपश्चितं तरणिं भ्राजमानं वहन्ति यं हरितः सप्त बह्वीः। स्रुताद्यमत्त्रिर्दिवमुन्निनाय तं त्वा पश्यन्ति परियान्तमाजिम् ॥
स्वर रहित पद पाठविप:ऽचितम् । तरणिम् । भ्राजमानम् । वहन्ति । यम् । हरित: । सप्त । बह्वी: । स्रुतात् । यम् । अत्त्रि: । दिवम् । उत्ऽनिनाय । तम् । त्वा । पश्यन्ति । परिऽयान्तम् । आजिम् ॥2.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(बह्वीः) बड़ी (सप्त१ हरितः) सात या फैली हुई रश्मियां (यम्) जिस (भ्राजमानम्) चमकते हुए, (विपश्चितम्) मेधावी परमेश्वर द्वारा चिने हुए, (तरणिम्) रात्रि के अन्धकार नद से तैराने वाले सूर्य को (वहन्ति) ले जाती हैं, (यम्) और जिसे (अत्त्रिः) अत्त्रि (स्रुतात्) द्रवावस्था से निकाल कर (दिवम् उन्निनाय) ऊपर द्युलोक में लाया, (तं त्वा) उस तुझ को (आजिम् परियान्तम्) मानो संग्राम की ओर जाते हुए को, (पश्यन्ति) देखते हैं। आजौ संग्रामनाम (निघं० २।१७)।
टिप्पणी -
[विपश्चितम् = विपः मेधाविनाम (निघं० ३।१५) + चितम् (चिञ् चयने)]। चिनी हुई वस्तु स्वयं गति नहीं करती, वह निश्चल होती है। इस द्वारा दर्शाया है कि सूर्य निश्चल है, ध्रुव है। अन्यत्र कहा भी है "एक पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन्" (अथर्व० ११।४।२१), अर्थात् हंस (सूर्य) अपने एक पैर को उखाड़ता नहीं, जमाए रखता है। तरणिम् = वह नौकारूप है जो कि प्रत्यक्षत द्यु-समुद्र में तैरती हुई, पूर्व से पश्चिम तक जाती दीखती है। इसे ले जाने वाले सप्तरंगी महाबली सात अश्व हैं। सूर्य की शुभ्र रश्मि, सात रंगों वाली ७ किरणों के परस्पर मिश्रण द्वारा निर्मित होती है। ये सप्तविध किरणें वर्षर्तु में इन्द्रधनुष् में दीखती हैं। अत्त्रि= चराचर जगत् का "अत्ता"२ अर्थात् खाने वाला परमेश्वर। विराट् अर्थात् आग्नेय अवस्था से जब जगत् की स्रुतावस्था अर्थात् द्रवावस्था आई, तब उस द्रवावस्था से अत्त्रि ने सूर्य को पृथक् कर उसे द्युलोक में स्थापित किया। विराट्-अवस्था तेजोमयी अवस्था है, तत्पश्चात् स्रुतावस्था आती है। "ततोविराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः । स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥" (यजु० ३१।५)। "अतिअरिच्यत" द्वारा जगत् की अति विरेचनावस्था अर्थात् द्रवावस्था सूचित की है। सूर्य के सम्बन्ध में कहा है कि वह मानो संग्राम में जाता है- अन्धकार के साथ युद्ध करने के लिये। मन्त्र वर्णन कवितामय है। अत्त्रिः३ = अद भक्षणे। परमेश्वर प्रलयवस्था में जगत् का भक्षण करता है। मन्त्र में अत्त्रि के वर्णन द्वारा मन्त्रवर्णन अध्यात्मरूप हुआ है। अत्त्रिः (१३।२।१२;३६ तथा १३।३।१५)। स्रुतात् = स्रु (गतौ) + क्तः। गति सूचक है द्रवावस्था का]। [१. सप्त = "सृप्ता संख्या" तथा "सप्तपुत्रम्= सर्पणपुत्रमिति वा" (नियुक्त ४।४।२६)। २. वेदान्त (१।२।९)। परमेश्वर को "अन्नाद" भी कहा है (अथर्व ० १३।३।७)। ३. अत्त्रिः= अद् +त्रिः (त्रैङ् पालने)। परमेश्वर प्रलयावस्था में जगत् का "अद्" भक्षण करता, और सर्गावस्था में जगत् का त्राण करता है। अद् + त्र + इनि:।]