यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - बृहस्पतिस्सोमो देवता
छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा। विष्ण॑ऽउरुगायै॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन्॥१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒। विष्णो॒ऽइति॒ विष्णो॒। उ॒रु॒गा॒येत्यु॑रुऽगाय। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न् ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोस्यादित्येभ्यस्त्वा । विष्णऽउरुगायैष ते सोमस्तँ रक्षस्व मा त्वा दभन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। आदित्येभ्यः। त्वा। विष्णोऽइति विष्णो। उरुगायेत्युरुऽगाय। एषः। ते। सोमः। तम्। रक्षस्व। मा। त्वा। दभन्॥१॥
विषय - उस के प्रथम मन्त्र से गृहस्थ धर्म के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी स्वीकार करना चाहिये, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ -
हे कुमार ब्रह्मचारिन् ! चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाली मैं ब्रह्मचारिणी (आदित्येभ्यः) अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले पुरुषों में से [त्वा] अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले आपको स्वीकार करती हूँ, क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) शास्त्र के नियम-उपनियमों कोग्रहण किये हुये (असि) हो । हे (विष्णो) सब शुभ विद्या गुण, कर्म स्वभावों को व्याप्त करने वालों में आप्त आदित्य ब्रह्मचारिन् ! (ते) आपका (एषः) यह गृहाश्रम (सोमः) मृदु गुणों को बढ़ाने वाला है, उसकी आप [रक्षस्व] रक्षा करो। हे (उरुगाय) नाना शास्त्रों को पढ़ने वाले आदित्य ब्रह्मचारिन् ! आपको काम बाण (मा दभन्) पीड़ित न करें ॥ ८ । १ ॥
भावार्थ -
ब्रह्मचर्य का सेवन की हुई सब युवती कन्याओं को ऐसी आकांक्षा अवश्य रखनी चाहिये कि वे अपने सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या वाले, अपने से अधिक बलवान्, अपने अभीष्ट, हृदय को प्रिय लगने वाले पतियोंको स्वयंवर विधि से स्वीकार करके उनकी सेवा किया करें। इसी प्रकार कुमार ब्रह्मचारी भी अपने तुल्य युवतियों को स्त्री रूप में स्वीकार करें। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुष सनातन गृहस्थ धर्म का पालन करें । परस्पर अत्यन्त विषयलोलुप होकर वीर्य का क्षय कभी न करें, किन्तु सदा ऋतुगामी होकर, दस सन्तान उत्पन्न करें और उन्हें सुशिक्षित कर ऐश्वर्य की उन्नति से प्रीतिपूर्वक गृहाश्रम में रमण करें। जैसेपरस्पर अप्रसन्नता, वियोग तथा व्यभिचार आदि दोष उत्पन्न न हों वैसा आचरण करके परस्पर सब प्रकार से सदा रक्षा किया करें ।। ८ । १ ।।
प्रमाणार्थ -
(दभन्) दभ्नवन्तु । यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार और अट् का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।३।५।६-८) में की गई है ॥ ८ । १ ॥
भाष्यसार -
१. गृहस्थ धर्म--चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य का सेवन करके ब्रह्मचारिणी युवती कन्या अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले आदित्य ब्रह्मचारी को स्वयंवर विधि से पति स्वीकार करके उसकी परिचर्या (सेवा) किया करे। किन्तु वह उसके ही सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या वाला हो। उससे अधिक बलवान हो। उसे अभीष्ट एवं हृदय को प्रिय लगने वाला हो। इसीप्रकार उक्त कुमार ब्रह्मचारी भी अपने तुल्य युवती कन्या को स्त्रीरूप में स्वीकार करे। दोनों मिलकर सनातन गृहस्थधर्म का पालन करें। सब शुभ विद्या, गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त प्राप्त विद्वान् पति तथा पत्नी परस्पर अत्यन्त विषयभोग में लोलुप होकर वीर्य का क्षय न करें। सदा ऋतुगामी हों। सन्तानों को सुशिक्षित करें । ऐश्ववर्य को बढ़ाकर प्रीतिपूर्वक गृहाश्रम में रमण करें। परस्पर प्रसन्न न हों। वियोग और व्यभिचार आदि दोषों से दूर रहें। एक दूसरे की सब प्रकार सब काल से रक्षा किया करें । २. ब्रह्मचारिणी कन्या-- चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाली हो । ३. कुमार ब्रह्मचारी–सब शुभ विद्या, गुण, कर्म स्वभावों को प्राप्त होने से आप्त विद्वान् हो (विष्णु)। अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला हो (आदित्य)। सब शास्त्रों का वेत्ताहो (उरुगाय) ।। ८ । १ ।।
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