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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 40
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - गृहपतयो राजादयो देवताः छन्दः - आर्षी गायत्री,स्वराट आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    अदृ॑श्रमस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒२ऽअनु॑। भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑। सूर्य॑ भ्राजिष्ठ॒ भ्राजि॑ष्ठ॒स्त्वं दे॒वेष्वसि॒ भ्राजि॑ष्ठो॒ऽहं म॑नु॒ष्येषु भूयासम्॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदृ॑श्रम्। अ॒स्य॒। के॒तवः॑। वि। र॒श्मयः॑। जना॑न्। अनु॑। भ्राज॑न्तः। अ॒ग्नयः॑। य॒था॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। सूर्य्य॑। भ्रा॒जि॒ष्ठ॒। भ्राजि॑ष्ठः। त्वम्। दे॒वेषु॑। अ॒सि॒। भ्राजि॑ष्ठः। अ॒हम्। म॒नु॒ष्ये᳖षु। भू॒या॒सम् ॥४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु । भ्राजन्तो अग्नयो यथा । उपयामगृहीतोसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय । सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वन्देवेष्वसि भ्राजिष्ठो हम्मनुष्येषु भूयासम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदृश्रम्। अस्य। केतवः। वि। रश्मयः। जनान्। अनु। भ्राजन्तः। अग्नयः। यथा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। सूर्य्याय। त्वा। भ्राजाय। एषः। ते। योनिः। सूर्याय। त्वा। भ्राजाय। सूर्य्य। भ्राजिष्ठ। भ्राजिष्ठः। त्वम्। देवेषु। असि। भ्राजिष्ठः। अहम्। मनुष्येषु। भूयासम्॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 40
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    भाषार्थ -
    जैसे इस जगत् के पदार्थों को ([वि] भ्राजन्तः) विशेष रूप से प्रकाशित करती हुई (रश्मयः) किरण रूप (केतवः) पदार्थों की ज्ञापक (अग्नयः) सूर्य, विद्युत् और लोक प्रसिद्ध--ये तीन अग्नियाँ हैं वैसे ही (जनान्) मनुष्य आदि प्राणियों को [अनु] प्रतिदिन (अदृश्रम्) देखूँ। आप (उपयामगृहीतः) राज्य-व्यवहार के लिए हमसे स्वीकार किए गए (असि) हो, (ते) आपका (एषः) यह राज्य-व्यवहार (योनिः) निवास है, अतः [त्वा] आपको (भ्राजाय) जीवन आदि प्रकाशक (सूर्याय) सूर्य के समान विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान बनने के लिए प्रेरित करता हूँ। तथा [त्वा] आपको (भ्राजाय) सर्वत्र प्रकाशमान(सूर्याय) चराचर के आत्मा जगदीश्वर की प्राप्ति के लिए आज्ञा देता हूँ। हे (भ्राजिष्ठ) अत्यन्त शोभायमान (सूर्य) सूर्य के समान न्याय-विद्याओं में प्रकाशमान राजन् ! जैसे आप (देवेषु) सब विद्याओं में प्रकाशमान विद्वानों में (भ्राजिष्ठ) अत्यन्त शोभायमान (असि) हो वैसे (अहम्) मैं ( मनुष्येषु) विद्या और न्यायाचरण में प्रकाशमान मनुष्यों में सुशोभित (भूयासम्) होऊँ ।। ८ । ४० ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है ॥ जैसे संसार में सूर्य की किरणें सर्वत्र फैलकर प्रकाश करती हैं वैसे राजा, प्रजा और सभा के लोग शुभ गुण, कर्म, स्वभावों में प्रकाशमान रहें, क्योंकिमनुष्य शरीर को प्राप्त करके उत्साह, पुरुषार्थ, सत्पुरुषों का संग और योगाभ्यास करने वाले किसी भी पुरुष के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि तथा शरीर, आत्मा और समाज की उन्नति को प्राप्त करना कठिन नहीं है। इसलिये सब मनुष्य आलस्य को छोड़कर नित्य प्रयत्न करें ॥ ८ । ४० ॥

    भाष्यसार - १. गृहाश्रमोपयोगी राजविषय--जैसे विशेष रूप से प्रकाशमान सूर्य की किरणें सर्वत्र फैलकर प्रकाश करती हैं, पदार्थों की ज्ञापक होती हैं, सूर्य, विद्युत् और प्रसिद्ध अग्नि तीन रूपों में दृष्टिगोचर होती हैं वैसे राजा, प्रजा और सभा के सदस्य लोग शुभ गुण, कर्म, स्वभावों में सदा प्रकाशमान रहें, विराजमान रहें। प्रजा-जनों को उचित है कि वे राज्य-व्यवहार के लिए नियमानुसार सभापति राजा स्वीकार करें क्योंकि राज्यव्यवहार का कारण राजा है। जीवन आदि के प्रकाशक सूर्य के समान विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान रहने के लिए प्रेरणा करते रहें तथा सर्वत्र प्रकाशमान, चराचर के आत्मा जगदीश्वर की उपासना में भी नियुक्त रखें। अत्यन्त शोभायमान, सूर्य के समान न्याय तथा विद्यादि गुणों में प्रकाशमान सभापति राजा समस्त विद्याओं में प्रकाशमान विद्वानों से बढ़कर हो। वैसे उसकी प्रजा भी विद्या और न्यायाचरण में प्रकाशमान मनुष्यों में सबसे बढ़कर हो। क्योंकि मनुष्य शरीर को प्राप्त करके प्रत्येक व्यक्ति उत्साह,, पुरुषार्थ, सत्संग और योगाभ्यास करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि तथा शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति को प्राप्त कर सकता है । २. अलङ्कार-- इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे सूर्य की किरणें सर्वत्र प्रकाश करती हैं वैसे सब मनुष्य शुभ गुण, कर्म, स्वभावों में प्रकाशमान रहें ।। ८ । ४० ।।

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