यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 53
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - आर्षी अनुष्टुप्,आसुरी उष्णिक्,प्राजापत्या बृहती,विराट प्राजापत्या पङ्क्ति
स्वरः - गान्धारः, ऋषणः, मध्यमः, पञ्चमः
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यु॒वं तमि॑न्द्रापर्वता पुरो॒युधा॒ यो नः॑ पृत॒न्यादप॒ तन्त॒मिद्ध॑तं॒ वज्रे॑ण॒ तन्त॒मिद्ध॑तम्। दू॒रे च॒त्ताय॑ छन्त्स॒द् गह॑नं॒ यदि॒न॑क्षत्। अ॒स्माक॒ꣳ शत्रू॒न् परि॑ शूर वि॒श्वतो॑ द॒र्मा द॑र्षीष्ट वि॒श्वतः॑। भूभुर्वः॒ स्वः सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्याम सु॒वीरा॑ वी॒रैः सु॒पोषाः॒ पोषैः॑॥५३॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम्। तम्। इ॒न्द्रा॒पर्व॒ता॒। पु॒रो॒युधेति॑ पुरः॒युधा॑। यः। नः॒। पृ॒त॒न्यात् अप॑। तन्त॒मिति॒ तम्ऽत॑म्। इत्। ह॒त॒म्। वज्रे॑ण। तन्त॒मिति॒ तम्ऽत॑म्। इत्। ह॒त॒म्। दू॒रे। च॒त्ताय॑। छ॒न्त्स॒त्। गह॑नम्। यत्। इन॑क्षत्। अ॒स्माक॑म्। शत्रू॑न्। परि॒। शू॒र॒। वि॒श्वतः॑। द॒र्म्मा। द॒र्षी॒ष्ट॒। वि॒श्वतः॑। भुरिति॒ भूः। भुव॒रि॒ति॒ भु॑वः। स्व᳖रिति॒ स्वः॑। सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जाभिः॑। स्या॒म॒। सु॒वीरा॒ इति॑ सु॒ऽवीराः॑। वी॒रैः। सु॒पोषा॒ इति॑ सु॒ऽपोषाः॑। पोषैः॑ ॥५३॥
स्वर रहित मन्त्र
युवन्तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तन्तमिद्धतँवज्रेण तन्तमिद्धतम् । दूरे चत्ताय च्छन्त्सद्गहनँ यदिनक्षत् । अस्माकँ शत्रून्परि शूर विश्वतो दर्मा दर्षीष्ट विश्वतः । भूर्भुवः स्वः सुप्रजाः प्रजाभिः स्याम सुवीरा वीरैः सुपोषाः पोषैः ॥
स्वर रहित पद पाठ
युवम्। तम्। इन्द्रापर्वता। पुरोयुधेति पुरःयुधा। यः। नः। पृतन्यात् अप। तन्तमिति तम्ऽतम्। इत्। हतम्। वज्रेण। तन्तमिति तम्ऽतम्। इत्। हतम्। दूरे। चत्ताय। छन्त्सत्। गहनम्। यत्। इनक्षत्। अस्माकम्। शत्रून्। परि। शूर। विश्वतः। दर्म्मा। दर्षीष्ट। विश्वतः। भूरिति भूः। भुवरिति भुवः। स्वरिति स्वः। सुप्रजा इति सुऽप्रजाः। प्रजाभिः। स्याम। सुवीरा इति सुऽवीराः। वीरैः। सुपोषा इति सुऽपोषाः। पोषैः॥५३॥
विषय - गृहस्थ-विषयक फिर विशेष उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे (पुरोयुधा) युद्ध काल में आगे लड़ने वाले (इन्द्रापर्वतौ) सूर्य और मेघ के सदृश सेनापति और सेना के लोगो ! (युवम् ) तुम दोनों जो-जो (नः) हमारी सेना से युद्ध करना चाहे [तम्] उस (तन्तम्) शत्रु का (वज्रेण) शस्त्र-अस्त्र विद्या के बल से (इत्) ही (अपहतम्) हनन करो। और—
वह (गहनम्) विकट शत्रुदल हमारे सेनादल में (इनक्षत्) व्याप्त हो जाये, मिल जाये। औरजो (छन्त्सत्) अपना बल बढ़ावे उस (तन्तम्) शत्रु को (चत्ताय) प्रजा के आनन्द के लिये (इत्) ही (हतम्) दूर हटायो, विनष्ट करो ।
हे (शूर) शत्रुओं का हिंसन करने वाले शूर सभापते ! आप (दर्म्मा) शत्रुओं का विदारण करने वाले होकर हमारे शत्रुओं का (विश्वतः) सब ओर से (परिदर्षीष्ट) विदारण करो। जिससे हम लोग [भू] भूमि [भुवः] अन्तरिक्ष [स्वः] द्युलोक में (प्रजाभिः) प्रजा से (सुप्रजाः) उत्तम सन्तान वाले, (वीरैः) उत्तम बल से युक्त पुरुषों से (सुवीराः)अति श्रेष्ठ वीरों वाले, (पोषै:) नाना पुष्टिकारक पदार्थों से (सुपोषा:) अत्युत्तम पुष्टि वाले (विश्वतः) सब ओर से (स्याम) हों ।। ८ । ५३ ।।
भावार्थ - जब तक सभापति और सेनापति चतुर होकर सब कामों में अग्रणी नहीं होते तब तक सेना के वीर हर्ष से युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते।इस कार्य के बिना कभी विजय नहीं हो सकती ।जब तक सभापति आदि शत्रुरहित नहीं हो जाते तब तक वे प्रजा का पालन नहीं कर सकते, और उत्तम प्रजा वाले होकर सुखी नहीं रह सकते ॥ ८। ५३ ।।
प्रमाणार्थ -
(इन्द्रापर्वता) यहाँ 'सुपां सुलुक्०' (अ० ७ । १ । ३९) इस सूत्र से आकारआदेश है। (इनक्षत्) यह पद निघं० (२ । १८) में व्याप्त्यर्थक क्रियाओं में पढ़ा है। इस मंत्र की व्याख्या शत० (४ । ५ । ११ । १४) में की गई है ।। ८ । ५३ ।।
भाष्यसार - गृहस्थ-विषयक विशेष उपदेश--प्रजाजन कहते हैं, हे सूर्य के समान तेजस्वी सेनापते ! तथा मेघ के समान शत्रु सेना को आच्छादित करने वाले वीर सैनिको! युद्ध में आगे रहो, सब कार्यों में अग्रणी रहो, जो-जो हमारे लिये अपनी सेना तैयार करे, अर्थात् बल बढ़ा कर युद्ध की कामना करे उस-उस शत्रु का वज्र से हनन करो। और ऐसा प्रयत्न करो कि शत्रु का बल हमारी सेना में व्याप्त हो जाये, हमारी सेना बन जाये। और जो कोई शत्रु अपने बल को बढ़ावे उसे हमारे हर्ष के लिये दूर हटाओ, अथवा नष्ट कर डालो । हे शत्रुओं का हिंसन करने वाले शूर सभापते ! आप भी युद्धादि कार्यों में चतुर होकर सर्वत्र अग्रणी रहो, जिससे सेनापति तथा वीर सैनिक भी हर्षपूर्वक युद्ध में प्रवृत्त रहें। आपके इस कार्य के बिना कभी विजय नहीं हो सकती। आप शत्रुत्रों का विदारण करके अजातशत्रु बन जाओ क्योंकि जब तक शत्रु शेष हैं तब तक आप भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सुखपूर्वक हमारा पालन नहीं कर सकते और हम लोग भी उत्तम सन्तानों वाले, श्रेष्ठ वीरों वाले और अत्यन्त पुष्ट नहीं हो सकते ॥ ८ । ५३ ॥
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