यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 41
ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः
देवता - सूर्य्यो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री,स्वराट आर्षी गायत्री,
स्वरः - षड्जः
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उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठउत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्यम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑। दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यञ्जातवेदसन्देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् । उपयामगृहीतोसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। ऊँऽइत्यूँ। त्यम्। जातवेदसमिति जातऽवेदसम्। देवम्। वहन्ति। केतवः। दृशे। विश्वाय। सूर्य्यम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। सूर्य्याय। त्वा। भ्राजाय। एषः। ते। योनिः। सूर्य्याय। त्वा। भ्राजाय॥४१॥
विषय - अब ईश्ववरपक्ष में गृहस्थ के कर्म का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
जिस (जातवेदसम्) जात मात्र को जानने वाले एवं प्राप्त अथवा जिससे चारों वेद वा सब पदार्थ उत्पन्न हुये हैं उस (देवम्) शुद्ध स्वरूप (सूर्यम्) चराचर के आत्मा जगदीश्वर को (विश्वाय) सब जगत् के उपकार के निमित्त (दृशे) देखने के लिये (केतवः) सूर्य-किरणों के समान प्रकाशमान विद्वान् लोग (उद्वहन्ति) प्राप्त करते हैं, (उ) विचारपूर्वक (त्यम्) उस जगदीश्वर को हम लोग प्राप्त करें।
हे जगदीश्वर ! आप हमसे--(भ्राजाय) प्रकाशक (सूर्याय) प्राण वा ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति के लिये (उपयामगृहीतः) यम-नियम आदि से स्वीकार किये गये (असि) हो, सो (त्वा) आप को सब लोग उक्त प्रयोजन के लिये ग्रहण करें।
जिस (ते) आपके ज्ञान में (एषः) यह कार्यकारण की संगति से अनुमान करना (योनिः)अतुल प्रमाण है, सो [त्वा] आपको तथा (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्याय) ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति के लिये कारण [प्रकृति] को जानें ॥ ८ । ४१ ॥
भावार्थ - जैसे वेद के वेत्ता विद्वान् लोग वेदानुकूल मार्ग से परमेश्वर को जानकर श्रेष्ठ विज्ञान से उसकी उपासना करते हैं वैसे ही वह ईश्वर सबके लिये उपासनीय है। वैसे ज्ञान के बिना ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती क्योंकि विज्ञान ही परमेश्वर- उपासना की अवधि है ॥ ८ । ४१ ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । ९) में की गई है ।। ८ । ४१ ।।
भाष्यसार - ईश्वर और गृहस्थ कर्म--ईश्वर जातमात्र सब पदार्थों को जानता है, सब जातमात्र पदार्थों में विद्यमान है, सब वेद और सब पदार्थ उसी से उत्पन्न हुये हैं। इसलिये वह 'जातवेदाः' कहलाता है। शुद्धस्वरूप होने से ईश्वर का नाम 'देव' है । चराचर का आत्मा होने से ईश्वर का नाम ‘सूर्य' है। इस जगदीश्वर को सूर्य की किरणों के समान विद्यादि गुणों से प्रकाशमान वेदज्ञ विद्वान् लोग सकल जगत् के उपकार की दृष्टि से प्राप्त करते हैं, श्रेष्ठ विज्ञान से उसकी उपासना करते हैं। विद्वानों के समान यह ईश्वर सबके लिये उपास्य है। प्राण-विज्ञान वा सूर्य-विज्ञान की प्राप्ति के लिये यम-नियम आदि से जगदीश्वर को ग्रहण करें। ईश्वर के ग्रहण में कार्य-कारण की संगति के द्वारा इसका अनुमान अतुल प्रमाण है। ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति में ईश्वर को ही कारण समझें क्योंकि विज्ञान की अवधि परमेश्वर की उपलब्धि पर्यन्त है ।। ८ । ४१ ।।
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