यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 14
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - विराट आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳशि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ वि द॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो यद्विलि॑ष्टम्॥१४॥
स्वर सहित पद पाठसम्। वर्च॑सा पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳖। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
सँवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन । त्वष्टा सुदत्रो वि दधातु रायो नु मार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। वर्चसा पयसा। सम्। तनूभिः। अगन्महि। मनसा। सम्। शिवेन। त्वष्टा। सुदत्र इति सुऽदत्रः। वि। दधातु। रायः। अनु। मार्ष्टु। तन्वः। यत्। विलिष्टमिति विऽलिष्टम्॥१४॥
विषय - गृहस्थों की मित्रता विषय का फिर उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे अध्यापक ! (त्वष्टा) सब व्यवहारों को सूक्ष्म करने वाले और (सुदत्रः) विद्या का दान करने वाले विद्वान् हो। इसलिये (संशिवेन) कल्याणकारक (मनसा) विज्ञानयुक्त अन्तःकरण से (संवर्चसा) अध्यय-अध्यापन के प्रकाश से (पयसा) जल वा अन्न से (यत्) जो (तन्व:) शरीर-सम्बन्धी (विलिष्टम्) विशेष न्यूनता है उसे (अनुमार्ष्टु) बार-बार दूर करो तथा (रायः) धनों को (विदधातु) प्रदान करो और हम लोग उस न्यूनता को तथा उक्त धनों को (तनूभिः) अपने शरीरों से (समगन्महि ) पूरा करें तथा प्राप्त करें ।। ८ । १४ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।। मनुष्यों को योग्य है कि पुरुषार्थ से विद्या को प्राप्त करके, विधिपूर्वक अन्न-जल का सेवन करके, शरीर को नीरोग बना, मन को धर्ममें लगा, सदा सुख की उन्नति करके जो कोई कमी हो उसे पूरा करें । जैसे कोई मित्र अपने सखा के लिये बर्ताव करे वैसे उसके सुख के लिये स्वयं भी आचरण करे ।। ८। १४ ॥
प्रमाणार्थ -
( पयसा) 'पय:' शब्द निघं० (१ । १२) में जल-नामों में और निघं० (२ । ९) में अन्न-नामों में पढ़ा है। (अगन्महि) यहाँ'गम्लृ' धातु से लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। 'मन्त्रे घसह्वर०' (अ० २।४।८०) इस सूत्र से 'च्लि' का लुक् है । 'म्वोश्च' (अ०८ । २ । ६५ ) इस सूत्र से 'म' को 'न' हो गया है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ४ । ४ । १४-१५) में की गई है ।। ८ । १४ ।।
भाष्यसार - १. गृहस्थों की मित्रता--गृहस्थ पुरुष विद्वान् अध्यापक से मित्रभाव से इस प्रकार निवेदन करे कि हे अध्यापक ! आप सब व्यवहारों को सूक्ष्म (लघु) करने वाले हो, पुरुषार्थ से विद्या को सिद्ध करके उसके श्रेष्ठ दाता हो, सो आप कल्याणकारक मन से मेरे मन को धर्म में लगाओ, पठन-पाठन रूप प्रकाश से मेरी बुद्धि को प्रकाशित करो, विधिपूर्वक अन्न-जल सेवन की शिक्षा से मेरे शरीर को नीरोग करो, तात्पर्य यह है कि मेरे किसी भी अङ्ग में जो कोई न्यूनता आपको दिखलाई देती है उसे आप पूरा करो। मेरे लिये सदा सुख की वृद्धि करो। २. अलङ्कार– मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त हैं, अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है । उपमा यह है कि जैसे एक मित्र अपने मित्र के सुख के लिये प्रयत्न करता है वैसे सब मनुष्य पारस्परिक सुख-वृद्धि के लिये सदा प्रयत्न किया करें ॥ ८ । १४ ॥
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