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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - स्वराट आर्षी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
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    देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त। म॒न॑सस्पतऽइ॒मं दे॑व य॒ज्ञꣳ स्वाहा॒ वाते॑ धाः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवाः॑। गा॒तु॒वि॒द॒ इति॑ गातुऽविदः। गा॒तुम्। वि॒त्त्वा। गा॒तुम्। इ॒त॒। मन॑सः। प॒ते॒। इ॒मम्। दे॒व॒। य॒ज्ञम्। स्वाहा॑। वाते॑। धाः॒ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा गातुविदो गातुँ वित्त्वा गातुमित । मनसस्पत इमन्देव यज्ञँ स्वाहा वाते धाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवाः। गातुविद इति गातुऽविदः। गातुम्। वित्त्वा। गातुम्। इत। मनसः। पते। इमम्। देव। यज्ञम्। स्वाहा। वाते। धाः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 21
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    भाषार्थ -
    हे (गातुविदः) अपने गुण, कर्म, स्वभाव से पृथिवी को जानने वाले (देवाः) सत्यऔर असत्य को यथार्थ कहने वाले गृहस्थो! तुम लोग (गातुम्) भूगर्भविद्या से युक्त भूगोल को (वित्त्वा) जानकर (गातुम्) पृथिवी के राज्य आदि से उत्पन्न उपकार को (इत) प्राप्त करो। हे (मनसस्पते) मन को वश में रखने वाले (देव) दिव्य विद्या में व्युत्पन्न प्रत्येक गृहस्थ पुरुष ! तू (स्वाहा) धर्मयुक्त कर्म से (इमम्) इस (यज्ञम्) सब सुखों को प्राप्त कराने वाले गृहाश्रम को (वाते) लोक व्यवहार में (धा) धारण कर ॥८।२१ ।। [हे गातुविदो देवाः! यूयं गातुं वित्त्वा गातुमित, हेमनसस्ते देव ! प्रतिगृहस्थस्त्वं स्वाहमें यज्ञं वाते धाः]

    भावार्थ - गृहस्थों को योग्य है कि वे अति प्रयत्न से भूगर्भ आदि विद्याओं को प्राप्त करके जितेन्द्रिय तथा परोपकारी होकर सत्य धर्म से गृहाश्रम के व्यवहारों को उन्नत करके सब प्राणियों को सुखी करें ।। ८ । २१ ॥

    भाष्यसार - गृहस्थ के कर्म--गुण, कर्म, स्वभाव से पृथ्वी को जानने वाले, सत्य और असत्य को यथावत् कहने वाले गृहस्थ लोग भूगर्भ आदि विद्याओं को जानकर पृथिवी के राज्य से होने वाले उपकारों को प्राप्त करें। प्रत्येक गृहस्थ मन का पति अर्थात् जितेन्द्रिय, परोपकारी तथा दिव्य विद्याओं में व्युत्पन्न होकर सत्य धर्म के आचरण से सब सुखों को प्राप्त कराने वाले गृहाश्रम के व्यवहारों को समुन्नत करें तथा यज्ञादि शुभ कर्मों से सब प्राणियों को सुखी करें ॥ ८ । २१ ।।

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