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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 2
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - गृहपतिर्मघवा देवता छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒ नेन्द्र॑ सश्चसि दा॒शुषे॑। उपो॒पेन्नु म॑घव॒न् भूय॒ऽइन्नु ते॒ दानं॑ दे॒वस्य॑ पृच्यतऽआदि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒दा। च॒न। स्त॒रीः। अ॒सि॒। न। इ॒न्द्र॒। स॒श्च॒सि॒। दा॒शुषे॑। उपो॒पेत्युप॑ऽउप। इत्। नु। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। भूयः॑। इत्। नु। ते॒। दान॑म्। दे॒वस्य॑। पृ॒च्य॒ते॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन्भूय इन्नु ते दानन्देवस्य पृच्यतेऽआदित्येभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कदा। चन। स्तरीः। असि। न। इन्द्र। सश्चसि। दाशुषे। उपोपेत्युपऽउप। इत्। नु। मघवन्निति मघऽवन्। भूयः। इत्। नु। ते। दानम्। देवस्य। पृच्यते। आदित्येभ्यः। त्वा॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 2
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    भाषार्थ -
    हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य से युक्त पते ! क्योंकि आप (कदा) कभी (चन) भी (स्तरी:) स्वभाव को छुपाने वाले छली, कपटी एवं संकोची (न) नहीं (असि) हो, इसलिये (दाशुषे ) दानशील के (इत्) ही (नु) शीघ्र (उपोप+सश्चसि) समीप पहुँच जाते हो । हे (मघवन्) प्रशंसनीय धन से युक्त पते ! (देवस्य) आप विद्वान् का जो दान है वह (इत्) ही (नु) शीघ्र (भूयः) अधिकता से (पृच्यते) सम्बद्धहोता है, इसलिये मैं स्त्री-भाव से (आदित्येभ्यः) बारह महीनों [सदा] के लिये (त्वा) सुख पहुँचाने वाले आप को मैं आश्रय ग्रहण करती हूँ॥ ८।२॥

    भावार्थ - विवाह की कामना वाली युवती स्त्री को उचित है कि वह छल-कपट के आचरण से रहित, सत्य भावों का प्रकाशक, एक स्त्री का व्रती, जितेन्द्रिय, पुरुषार्थी, धार्मिक, दानशील और विद्वान् हो उसके साथ विवाह करके सदा आनन्द में रहे ।। ८ । २ ॥

    भाष्यसार - १. गृहस्थ--धर्म-विवाह की कामना करने वाली युवती स्त्री को उचित है कि वह इन्द्र अर्थात् परम ऐश्वर्य से युक्त, अपने स्वभाव को न छुपाने वाला अर्थात् छल-कपट के आचरण से रहित, सत्य भावों को प्रकाशित करने वाले, एक स्त्री के व्रती, जितेन्द्रिय पुरुषार्थी, धार्मिक, प्रशंसित, धनवान्, दानशील, विद्वान् हो उसके साथ विवाह करके सदा आनन्द में रहे । २. पति-- परम ऐश्वर्य से युक्त हो (इन्द्र) । प्रशंसित धन से युक्त हो (मघवा) ॥ ८ । २ ॥

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