यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 57
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - निचृत् ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
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विश्वे॑ दे॒वाऽअ॒ꣳशुषु॒ न्युप्तो॒ विष्णु॑राप्रीत॒पाऽआ॑प्या॒य्यमा॑नो य॒मः सू॒यमा॑नो॒ विष्णुः॑ सम्भ्रि॒यमा॑णो वा॒युः पू॒यमा॑नः शु॒क्रः पू॒तः। शु॒क्रः क्षी॑र॒श्रीर्म॒न्थी स॑क्तु॒श्रीः॥५७॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑। दे॒वाः। अ॒ꣳशुषु॑। न्यु॑प्त॒ इति॑ निऽउ॑प्तः। विष्णुः॑। आ॒प्री॒त॒पा इत्या॑प्रीत॒ऽपाः। आ॒प्या॒य्यमा॑न॒ इत्या॑ऽप्या॒य्यमा॑नः। य॒मः। सू॒यमा॑नः। विष्णुः॑। स॒म्भ्रि॒यमा॑ण इति॑ सम्ऽभ्रि॒यमा॑णः। वा॒युः। पू॒यमा॑नः। शु॒क्रः। पू॒तः॒। शु॒क्रः। क्षी॒र॒श्रीरिति॑ क्षीर॒ऽश्रीः। म॒न्थी। स॒क्तु॒श्रीरिति॑ सक्तु॒ऽश्रीः ॥५७॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे देवा अँशुषु न्युप्तो विष्णुराप्रीतपाऽआप्याय्यमानः यमः सूयमानो विष्णुः सम्भ्रियमाणो वायुः पूयमानः शुक्रः पूतः शुक्रः क्षीरश्रीर्मन्थी सक्तुश्रीः विश्वे देवा॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वे। देवाः। अꣳशुषु। न्युप्त इति निऽउप्तः। विष्णुः। आप्रीतपा इत्याप्रीतऽपाः। आप्याय्यमान इत्याऽप्याय्यमानः। यमः। सूयमानः। विष्णुः। सम्भ्रियमाण इति सम्ऽभ्रियमाणः। वायुः। पूयमानः। शुक्रः। पूतः। शुक्रः। क्षीरश्रीरिति क्षीरऽश्रीः। मन्थी। सक्तुश्रीरिति सक्तुऽश्रीः॥५७॥
विषय - अब गृहस्थ कर्म में विद्वानों के पक्ष में कुछ उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे (विश्वे) सब (देवा:) विद्वान् पुरुषो ! आप लोगों से--(अंशुषु) नाना सांसारिक पदार्थों में (न्युप्तः) नित्य स्थापित किया हुआ व्यवहार, (आप्रीतपाः) सब ओर से कमनीय पदार्थों की रक्षा करने वाली (विष्णुः) व्यापक बिजली, (आप्याय्यमानः) बढ़ा हुआ (यमः) सूर्य, (सूयमानः) उत्पन्न होने वाला (विष्णु:) व्यापक जल, (सम्भ्रियमाणः) अच्छी प्रकार पोषण किया हुआ (वायु:) प्राण (पूयमानः) पवित्र किया हुआ (शुक्रः पूतः) शुद्ध वीर्य तथा (शुक्रः) आशुकारी (मन्थी) मन्थन करने वाला व्यक्ति सेवन किये हुये ये पदार्थ (क्षीरश्री:) दुग्ध आदि पदार्थों को पकाने वाले और (सक्तुश्रीः) उपयोगी पदार्थों को प्राप्त कराने वाले होते हैं ।। ८ । ५७ ।।
भावार्थ - मनुष्यों के द्वारा युक्ति और विद्या से सेवन किये विद्युत् आदि पदार्थ शरीर, आत्मा और समाज के लिये सुखदायक होते हैं ॥८ । ५७ ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२ । ६ । १ । १९-२६) में की गई है ॥८ । ५७॥
भाष्यसार - गृहस्थ कर्म और विद्वान्--विद्वान् गृहस्थों को उचित है कि वे शरीर, आत्मा और समाज को सुख देने वाले विद्युत् आदि पदार्थों का विद्या और युक्ति से सेवन करें क्योंकि संसार के विभिन्न पदार्थों में ही विद्वानों का व्यवहार नित्य स्थापित है। विद्युत् पदार्थों में व्यापक है और जो कमनीय पदार्थों की सब ओर से रक्षा करती है। सूर्य सब की वृद्धि का हेतु है। जल व्यापक है और उत्पन्न होने वाले हैं। प्राण पोषण के योग्य हैं। पवित्र किया हुआ वीर्य शुद्ध हो जाता है। आशुकारी व्यक्ति मन्थन कार्य उपयोगी होता है। जो इन विद्युत् आदि पदार्थों का युक्ति और विद्या से उपयोग जानते हैं वे दुग्ध आदि पदार्थों को पकाने वाले तथा सत्तु आदि विविध द्रव्यों को प्राप्त करने वाले होते हैं ।। ८ । ५७ ।।
अन्यत्र व्याख्यात - यम: सूयमानो०, यहाँ वायु, विद्युत्, सूर्य के यम नाम हैं।(संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरणम्) ॥ ८ । ५७॥
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