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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 14
    ऋषिः - देवश्रवदेववातौ भारतावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उ॒त्ता॒नाया॒मव॑ भरा चिकि॒त्वान्त्स॒द्यः प्रवी॑ता॒ वृष॑णं जजान।अ॒रु॒षस्तू॑पो॒ रुश॑दस्य॒ पाज॒ऽइडा॑यास्पु॒त्रो व॒युने॑ऽजनिष्ट॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ता॒नाया॑म्। अव॑। भ॒र॒। चि॒कि॒त्वान्। स॒द्यः। प्रवी॑तेति॒ प्रऽवी॑ता। वृष॑णम्। ज॒जा॒न॒ ॥ अ॒रु॒षस्तू॑प॒ इत्य॑रु॒षऽस्तू॑पः। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। इडा॑याः। पु॒त्रः। व॒युने॑। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तानायामव भरा चिकित्वान्त्सद्यः प्रवीता वृषणञ्जजान । अरुषस्तूपो रुशदस्य पाजऽइडायास्पुत्रो वयुने जनिष्ट ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तानायाम्। अव। भर। चिकित्वान्। सद्यः। प्रवीतेति प्रऽवीता। वृषणम्। जजान॥ अरुषस्तूप इत्यरुषऽस्तूपः। रुशत्। अस्य। पाजः। इडायाः। पुत्रः। वयुने। अजनिष्ट॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    पिछले दोनों मन्त्रों में 'तव व्रते' ये शब्द आये हैं। प्रभु की रक्षा के पात्र वे होते हैं जो प्रभु के व्रत में स्थित हों । प्रभु-प्राप्ति के लिए दृढ़ निश्चयवाले ये लोग सात्त्विक अन्न का प्रयोग करते हैं, इस सात्त्विक अन्न से इनकी बुद्धि भी सात्त्विक व सूक्ष्म बनती है। इस (उत्तानायाम्) = [उत्+तन] उत्कृष्ट विस्तारवाली बुद्धि में (चिकित्वान्) = समझदार पुरुष (अवभर) = वेदवाणी को भरता है। जैसे पृथिवी में बीज बोते हैं, उसी प्रकार समझदार व्यक्ति उत्कृष्ट विकसित बुद्धि में वेदवाणी का बीज बोते हैं। यह वेदवाणीरूप बीज (सद्यः) = कुछ ही समय बाद (प्रवीता) = प्रजाता = अंकुरित हुआ हुआ उस बोनेवाले को (वृषणम्) = बड़ा शक्तिशाली जजान बना देता है। वेदवाणी मानवजीवन को सबल बनाती है। उसकी प्रेरणा के अनुसार चलता हुआ मनुष्य काम-क्रोधादि वासनाओं से पराजित नहीं होता और संसार के विषय अत्यन्त प्रबल आकर्षण रखते हुए भी उसे बाँध नहीं पाते। यह (इडाया:) = वेदवाणी का (पुत्रः) = पुत्र बन गया है। वेदवाणी ने ही इसके जीवन को बनाया है। यह वेदवाणी का 'पुत्र' इसलिए भी है कि यही वाणी इसे 'पुनाति' = पवित्र करती है और त्रायते = बचाती है। यह वेदवाणी का पुत्र (अरुषस्तूप:) = [अरुषश्चासौ स्तूपः] क्रोध से एकदम शून्य और शक्ति की ऊर्ध्वगति करनेवाला [ स्तूप् to raise] होता है। मनुष्य दो कारणों से निर्बल होता है, यह कि शक्ति का अपव्यय हो जाए, और दूसरा यह कि क्रोध के कारण वह अन्दर-ही-अन्दर जल जाए । यह 'इडापुत्र' क्रोधशून्य है और साथ ही शक्ति को नष्ट न एक होने देनेवाला है। परिणामतः (अस्य पाजः) = इसकी शक्ति (रुशत्) = देदीप्यमान है। यह शारीरिक स्वास्थ्य व मानस प्रसाद के कारण प्रफुल्लित प्रतीत होता है। यह (वयुने) = उत्कृष्ट विज्ञान में (अजनिष्ट) = विकसित हुआ है। शरीर व मन के विकास के साथ इसका मस्तिष्क भी विज्ञान की दीप्ति से चमक उठा है।

    भावार्थ - भावार्थ- वेदवाणी [ज्ञान की वाणी] मानव जीवन को सबल बनाती है। यह उसे अक्रोधी, संयमी, दीप्तशक्तिवाला व ज्ञाननिष्ठ बना देती है।

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