यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 40
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - उषा देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
0
अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्नऽउ॒षासो॑ वी॒रव॑तीः॒ सद॑मुच्छन्तु भ॒द्राः।घृ॒तं दुहा॑ना वि॒श्वतः॒ प्रपी॑ता यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥४०॥
स्वर सहित पद पाठअश्वा॑वतीः। अश्व॑वती॒रित्यश्व॑ऽवतीः। गोम॑ती॒रिति॒ गोऽम॑तीः। नः॒। उ॒षासः॑। उ॒षस॒ऽइत्यु॒षसः॑। वी॒रवती॒रिति॑ वी॒रऽव॑तीः। सद॑म्। उ॒च्छ॒न्तु॒। भ॒द्राः ॥ घृ॒तम्। दुहा॑नाः। वि॒श्वतः॑। प्रपी॑ता॒ इति॒ प्रऽपी॑ताः। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वावतीर्गोमतीर्नऽउषासो वीरवतीः सदमुच्छन्तु भद्राः । घृतन्दुहाना विश्वतः प्रपीता यूयम्पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्वावतीः। अश्ववतीरित्यश्वऽवतीः। गोमतीरिति गोऽमतीः। नः। उषासः। उषसऽइत्युषसः। वीरवतीरिति वीरऽवतीः। सदम्। उच्छन्तु। भद्राः॥ घृतम्। दुहानाः। विश्वतः। प्रपीता इति प्रऽपीताः। यूयम्। पात। स्वस्तिभिः। सदा। नः॥४०॥
विषय - 'विश्वतः प्रपीत' - सर्वांगीण उन्नति
पदार्थ -
(न:) = हमारे लिए (उषासः) = उषःकाल (सदम्) = सदैव [ऋ० १।१०६ । पर द०, सदम् = संवत्सरम्= वर्षभर, अर्थात् सारे साल - यास्क] (उच्छन्तु) = प्रकाशित हों। कैसी उषाएँ ? १. (अश्वावती:) = उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाली। अश्व शब्द 'अश्नुवते कर्मसु इस व्युत्पत्ति से कर्मेन्द्रियों का वाचक है। हम प्रत्येक उष:काल में उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाले हों। पिछले मन्त्र में वर्णित प्रकार से हम 'अध्वरों' में अपना समय बिताएँ । धारणात्मक कर्म करते हुए जीवन-यात्रा में चलें [ दधिक्रावा] । २. (गोमती:) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाली । 'गमयन्ति अर्थान्' इस व्युत्पत्ति से यह शब्द ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। हम प्रत्येक उष:काल में स्वाध्याय को अपना भोजन बनाएँ और अपने मस्तिष्क का ठीक पोषण करनेवाले बनें। ३. (वीरवती:) = ये उषःकाल वीरोंवाली हों। हम पवित्र मार्ग पर [ शुचये पदाय] चलते हुए वासनाओं से दूर रहकर शक्ति को अपने में सञ्चित करनेवाले हों। ५. (भद्रा:) = [भदि कल्याणे सुखे च] ये उषःकाल हमारे लिए कल्याणकर व सुखकारी हों। हम इनमें सदा शुभ कर्मों में प्रवृत्त होने का निश्चय करें । ५. (घृतम्) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मानस नैर्मल्य व ज्ञान की दीप्ति को (दुहाना:) = [दुह प्रपूरणे ] हममें वे भरनेवाले हों। प्रत्येक उषःकाल [उष दाहे] हमारे दोषों का दहन करके हमें निर्मल बनाये और हमारे ज्ञानों को दीप्त करनेवाला हो । ६. (विश्वतः) = सब दृष्टिकोणों से (प्रपीता) = खूब बढ़े हुए, अर्थात् हमारी वृद्धि करनेवाले ये उषःकाल हों। इनमें हम शरीर के स्वास्थ्य, मन के नैर्मल्य व बुद्धि की तीव्रता के लिए प्रयत्नशील हों। हमारी उन्नति सर्वांगीण हो, एकांगी उन्नति वस्तुतः उन्नति ही नहीं । 'विश्वतः प्रपीता' का अर्थ यह भी हो सकता है कि 'सब स्थानों से प्रकृष्ट पानवाले', हम जहाँ से भी अच्छाई मिल सके उसका ग्रहण करनेवाले बनें। सूर्य जिस प्रकार सब स्थानों से जल ले लेता है, इसी प्रकार हम भी सब स्थानों से अच्छाई को लेने का निश्चय करें। हे ऐसे उष:कालो ! (यूयम्) = तुम (सदा) = हमेशा (नः) = हमारा (स्वस्तिाभिः) = उल्लिखित बातों के द्वारा उत्तम स्थितियों से [ सु+अस्ति ] (पात) = पालन करो। उत्तम स्थिति यही है कि [क] हम उत्तम कर्मों में लगे रहें [अश्वावती:] [ख] उत्तम कर्मों के लिए आवश्यक है कि हम उत्तम विचारों व ज्ञानवाले हों [गोमती:] [ग] इस ज्ञान की उत्तमता के लिए वीर्यरक्षा आवश्यक है। वीर्य ही ज्ञानाग्नि का ईंधन है। हम वीर्यवान् हों [वीरवती:] । [घ] ये बातें होने पर हमारा मार्ग कल्याण-ही-कल्याणवाला होगा [भद्रा] । [ङ] हमारा नैर्मल्य व ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता ही बढ़ता जाएगा [घृतं दुहाना :], [च] इस प्रकार हमारी सर्वांगीण उन्नति होगी [विश्वतः प्रपीता: ] । हमारे उष:काल सदा हमारी इस उत्तम स्थित को प्राप्त करानेवाले [लाने] हों।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा प्रत्येक उषःकाल उत्तमकर्म, उत्तमज्ञान, शक्ति, भद्रता, नैर्मल्य व वृद्धिवाला हो ।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal