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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 52
    ऋषिः - दक्ष ऋषिः देवता - हिरण्यन्तेजो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यदाब॑ध्नन् दाक्षाय॒णा हिर॑ण्यꣳ श॒तानी॑काय सुमन॒स्यमा॑नाः।तन्म॒ऽआ ब॑ध्नामि श॒तशा॑रदा॒यायु॑ष्माञ्ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑म्॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। आ। अब॑ध्नन्। दा॒क्षा॒य॒णाः। हिर॑ण्यम्। श॒तानी॑का॒येति॑ श॒तऽअ॑नीकाय। सु॒म॒न॒स्यमा॑ना॒ इति॑ सुऽमन॒स्यमा॑नाः ॥ तत्। मे॒। आ। ब॒ध्ना॒मि॒। श॒तशा॑रदा॒येति॑ श॒तऽशा॑रदाय। आयु॑ष्मान्। ज॒रद॑ष्टि॒रिति॑ ज॒रत्ऽअ॑ष्टिः। यथा॑। अस॑म् ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यँ शतानीकाय सुमनस्यमानाः । तन्मऽआबध्नामि शतशारदायायुष्मान्जरदष्टिर्यथासम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। आ। अबध्नन्। दाक्षायणाः। हिरण्यम्। शतानीकायेति शतऽअनीकाय। सुमनस्यमाना इति सुऽमनस्यमानाः॥ तत्। मे। आ। बध्नामि। शतशारदायेति शतऽशारदाय। आयुष्मान्। जरदष्टिरिति जरत्ऽअष्टिः। यथा। असम्॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 52
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    पदार्थ -
    पिछले मन्त्र में 'दाक्षायण हिरण्य' के धारण की महिमा का सुन्दर वर्णन हुआ है। प्रस्तुत मन्त्र में उस 'दाक्षायण हिरण्य' के बाँधने का निश्चय करता हुआ 'दक्ष' कहता है कि (यत्) = जिस (दाक्षायणाः) = वृद्धि के कारणभूत, रोगकृमियों के विध्वंसक (हिरण्यम्) = हितरमणीय तेज को (सुमनस्यमाना:) = उत्तम विचार करते हुए लोग (शतानीकाय) = सौ-के-सौ वर्ष प्राणशक्ति के [अन प्राणने] स्थिर रखने के लिए (आबध्नन्) = अपने अन्दर बाँधते हैं (तत्) = उस तेज को (मे) = अपने लिए (आबध्नामि) = बाँधता हूँ (यथा) = जिससे (आयुष्मान्) = उत्कृष्ट जीवनवाला (जरदष्टिः) = वृद्धावस्था तक पूर्ण आयुष्य को व्याप्त करनेवाला (शतशारदाय) = सौ-के-सौ वर्ष के लिए आसम् होऊँ । उल्लिखत अर्थ में 'सुमनस्यमाना:' शब्द से हिरण्य के अपने मे बन्धन के साधन का सङ्केत हुआ है। मनुष्य मन में सदा उत्तम विचारों का करनेवाला बनेगा तो इस वीर्य को अवश्य सुरक्षित कर पाएगा। अशुभ विचार ही इसके नाश के महान् कारण बनते हैं। इसे अपने में बाँधने से होनेवाले लाभ इस रूप में हैं - १. शतानीकाय - सौ-के-सौ वर्ष प्राणशक्तिसम्पन्न बने रहेंगे। २. शतशारदाय - सौ वर्ष के आयुष्य तक हम अवश्य चलेंगे। ३. आयुष्मान् उत्तम जीवनवाले होंगे। ४. जरदष्टि:- पूर्ण वृद्धावस्था तक चलेंगे। नौजवानी में ही हमारा जीवन समाप्त न हो जाएगा । ५० से ५२ तक तीन मन्त्रों में 'हिरण्य' वीर्य की महिमा का वर्णन है। इसका हम अपने अङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्रवेश करें [५०] अपने में धारण करें [५१] और इसे अपने में ही बाँधनेवाले हों [५२] । जो व्यक्ति इस हिरण्य के प्रवेश, धारण व बन्धन को कर पाता है वह 'दक्ष' = उन्नतिशील [ to grow ] स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाला [to act quickly], रोगकृमियों व द्वेषादि मलों का ध्वंसक [to hurt, kill], कार्यकुशल [ to be competent ], क्रियाशील व निरालस्य [to go, move] होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम हिरण्य का अपने में प्रवेश धारण व बन्धन करके दीर्घ व उत्तम जीवनवाले बनें। यह हिरण्य सचमुच हमारा सुनहला आभूषण बन जाए।

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