यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 48
ए॒ष व॒ स्तोमो॑ मरुतऽइ॒यं गीर्मा॑न्दा॒र्यस्य॑ मा॒न्यस्य॑ का॒रोः।एषा या॑सीष्ट त॒न्वे व॒यां वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम्॥४८॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः। वः॒। स्तोमः॑। म॒रु॒तः॒। इ॒यम्। गीः। मा॒न्दा॒र्यस्य॑। मा॒न्यस्य॑। का॒रोः ॥ आ। इ॒षा। या॒सी॒ष्ट॒। त॒न्वे᳖। व॒याम्। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रदा॑नु॒मिति॑ जी॒रऽदा॑नुम् ॥४८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष व स्तोमो मरुतऽइयङ्गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः । एषा यासीष्ट तन्वे वयाँविद्यामेषँवृजनठञ्जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः। वः। स्तोमः। मरुतः। इयम्। गीः। मान्दार्यस्य। मान्यस्य। कारोः॥ आ। इषा। यासीष्ट। तन्वे। वयाम्। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरदानुमिति जीरऽदानुम्॥४८॥
विषय - पापों से दूर
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में प्राणसाधना का वर्णन है। प्राणों को वैदिक साहित्य में 'मरुतः' भी कहते हैं। इनकी साधना करनेवाले भी 'मरुतः' कहलाते हैं। ये प्राणसाधक 'मितराविण: 'कम बोलनेवाले होते हैं। यह प्राणसाधना ही वस्तुतः प्रभु-स्तवन है। हे (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले मनुष्यो ! (एषः वः स्तोमः) = यही तुम्हारा स्तुतिसमूह है। प्राणसाधना से हम दोषों का दहन करते हैं, इससे उत्तम प्रभु का स्तवन और क्या हो सकता है? २.(इयं गी:) = यह वेदवाणी (मान्दार्यस्य) [मन्दते: ईयतेश्च] = सदा प्रसन्न रहनेवाले गतिशील पुरुष की है। यह वाणी (मान्यस्य) = बड़ों का आदर करनेवाले देवपूजक [ respectful] की है, अर्थात् वेदवाणी के अध्ययन का मानव जीवन पर यह प्रभाव पड़ता है कि वह [क] सदा प्रसन्न, [ख] गतिशील, [ग] बड़ों का आदर करनेवाला तथा [घ] क्रियाओं को सुन्दरता से करनेवाला होता है। यदि उसका जीवन ऐसा नहीं बना तो यही समझना कि उसने वस्तुतः वेदवाणी का अध्ययन नहीं किया । ३. (एषा) = यह वेदवाणी (तन्वे) = [शरीरवृद्धयै] शरीर की सब शक्तियों के विस्तार के लिए यासीष्ट तुम्हें प्राप्त हो। वेदवाणी हमारे जीवन का अङ्ग बनती है तो हमारी शक्तियों का सब प्रकार से वर्धन होता है। ४. (वयाम्) [वयम् ] = कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले हम [वेञ् तन्तुसन्ताने] (इषम्) = प्रेरणा को (वृजनम्) = पापवर्जन को और परिणामतः (जीरदानुम्) = जीवनौषध को (विद्याम) = प्राप्त हों। वेदवाणी के अन्दर निहित प्रभु-प्रेरणा को आलसी व्यक्ति प्राप्त नहीं करता। वह प्रेरणा क्रियाशील को ही प्राप्त होती है, उस प्रेरणा से हम पापों को दूर फेंकते हैं और अपने जीवन को सर्वथा नीरोग बना पाते हैं। शरीर में रोग नहीं, मन में पाप नहीं, बुद्धि में कुण्ठा नहीं। इस प्रकार (अग) = [अग] आगे न बढ़ने देनेवाले [पातक] गिरावट के कारणभूत सब पापों का [स्त्या] संहार -करनेवाला यह 'अगस्त्य' बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना ही प्रभु-स्तवन है। वेदाध्येता सदा प्रसन्न, क्रियाशील, देवपूजक व दक्ष बनता है। वेदवाणी हमारी शक्तियों का विस्तार करती है। हम वेदवाणी की प्रेरणा को प्राप्त करके पापों से ऊपर उठें और जीवन को सुन्दर बनाएँ ।
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