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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 35
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - भगो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रꣳ हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्त्ता।आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द् राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒त॒र्जित॒मिति॑ प्रातः॒ऽजित॑म्। भग॑म्। उ॒ग्रम्। हु॒वे॒म॒। व॒यम्। पु॒त्रम्। अदि॑तेः। यः। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता ॥ आ॒ध्रः। चि॒त्। यम्। मन्य॑मानः। तु॒रः। चि॒त्। राजा॑। चि॒त्। यम्। भग॑म्। भ॒क्षि॒। इति॑। आह॑ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्जितम्भगमुग्रँ हुवेम वयम्पुत्रमदितेर्या विधर्ता । आध्रश्चिद्यम्मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यम्भगम्भक्षीत्याह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातर्जितमिति प्रातःऽजितम्। भगम्। उग्रम्। हुवेम। वयम्। पुत्रम्। अदितेः। यः। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता॥ आध्रः। चित्। यम्। मन्यमानः। तुरः। चित्। राजा। चित्। यम्। भगम्। भक्षि। इति। आह॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 35
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    पदार्थ -
    संसार - यात्रा धन के बिना चलनी सम्भव नहीं, परन्तु अन्याय से कमाया धन मनुष्य के पतन का कारण हो जाता है। वसिष्ठ प्रभु से कहता है कि १. हम (प्रातः) = उत्तम भावनाओं को अपने में भरने के समय [प्रा पूरणे] (जितम् भगम्) = उस सेवनीय धन को, जिसे हमने अपने पुरुषार्थ से जीता है, (हुवेम) = पुकारते हैं, बिना पुरुषार्थ के पाया धन मनुष्य के पतन का कारण बनता है। २. हम उस धन को पुकारते हैं जो उग्रम् उदात्त है [High, noble], जिसे प्राप्त करके हम घमण्डी व कमीने नहीं बन जाते । (उग्रम्) = [Industrious] जो धन हमें श्रमशील बनाये रखता है। ३. (वयम् पुत्रम्) [भगम् हुवेम] = हम उस धन को पुकारते हैं जो [पुनाति +त्रायते] हमारे जीवनों को पवित्र बनाता है और वासना से सुरक्षित करता है। ४. फिर हमें वह धन चाहिए (यः) = जो (अदितेः) = अखण्डन, अर्थात् स्वास्थ्य का (विधर्त्ता) = विशेषरूप से धारण करनेवाला है। अस्वस्थ बना देनेवाला धन हमें नहीं चाहिए। 'अदिति' का अर्थ निरुक्त में 'अदीना देवमाता' दिया है। हमें वह धन चाहिए जो हमें अदीन बनाए, जिसके कारण हमें किसी के सामने गिड़गिड़ाना न पड़े और हमारे हृदयों में दिव्य गुणों का विकास हो । ५. हमें वह धन चाहिए (यम् भगम्) = जिस धन को [क] (आध्रः) = आधार देने योग्य, अर्थात् लूला-लँगड़ा चित् भी (भक्षि इतिआह) = 'मैं खाता हूँ' ऐसा कहता है, अर्थात् जिस धन में इन सहारा देने योग्य अपाहिज लोगों को भी हिस्सा मिलता है। [ख] (मन्यमानः तुरः चित्) = आदरणीय, समाज की अज्ञानादि बुराइयों की हिंसा करनेवाला भी 'मैं खाता हूँ' इस प्रकार कहता है, अर्थात् हमारे धनों में समाजहित के कार्यों में लगे हुए व्यक्तियों को भी भाग मिलना चाहिए। जो व्यक्ति (मन्यमानः) = आदरणीय माने हुए हैं। यह ' मन्यमानः' विशेषण यहाँ इसलिए है कि कहीं धन 'अपात्र' में न पहुँच जाए। जिन व्यक्तियों को हम धन दें वे समाज के आदर के पात्र हों, जिससे कि उस धन के सद्व्यय का हमें निश्चय रहे। [ग] (राजा चित् यं भगं भक्षि इतिआह) = और अन्त में हमें वह धन चाहिए जिस धन को राजा भी 'मैं खाता हूँ', ऐसा कहता है, अर्थात् जिस धन में से राजा को उचित कर दिया जाता है। राजा ने इस कर प्राप्त धन से ही राष्ट्र की रक्षा व व्यवस्था करनी है। यदि हम कर नहीं देते तो राष्ट्र की चोरी ही करते हैं, अतः हमारे धन में अनाथों, समाज सेवकों व राजा का भाग होना ही चाहिए।

    भावार्थ - भावार्थ-धन पुरुषार्थ से कमाया जाए, वह हमें उदात्त बनानेवाला हो, हमारी पवित्रता व वासनाओं से रक्षा का कारण हो, हमें स्वस्थ व अदीन तथा दिव्य गुणोंवाला बनाये। हमारे धन में दीनों, मान्य समाज सेवियों तथा राजा को अवश्य अपना-अपना भाग मिले।

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