यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 26
ऋषिः - आङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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हिर॑ण्यहस्तो॒ऽअसु॑रः सुनी॒थः सु॑मृडी॒कः स्ववाँ॑ यात्व॒र्वाङ्।अ॒प॒सेध॑न् र॒क्षसो॑ यातु॒धाना॒नस्था॑द् दे॒वः प्र॑तिदो॒षं गृ॑णा॒नः॥२६॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यहस्त॒ इति॒ हिर॑ण्यऽहस्तः। असु॑रः। सु॒नी॒थ इति॑ सुऽनी॒थः। सु॒मृ॒डी॒क इति॑ सुमृडी॒कः। स्ववा॒निति॒ स्वऽवा॑न्। या॒तु॒। अ॒र्वाङ् ॥ अ॒प॒सेध॒न्नित्य॑प॒ऽसेध॑न्। र॒क्षसः॑। या॒तु॒धाना॒निति॑ यातु॒ऽधाना॑न्। अस्था॑त्। दे॒वः। प्र॒ति॒दो॒षमिति॑ प्रतिऽदो॒षम्। गृ॒णा॒नः ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यहस्तोऽअसुरः सुनीथः सुमृडीकः स्ववा यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषङ्गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिरण्यहस्त इति हिरण्यऽहस्तः। असुरः। सुनीथ इति सुऽनीथः। सुमृडीक इति सुमृडीकः। स्ववानिति स्वऽवान्। यातु। अर्वाङ्॥ अपसेधन्नित्यपऽसेधन्। रक्षसः। यातुधानानिति यातुऽधानान्। अस्थात्। देवः। प्रतिदोषमिति प्रतिऽदोषम्। गृणानः॥२६॥
विषय - स्वास्थ्यरूप धन की प्राप्ति
पदार्थ -
१. (हिरण्यहस्तः) = सुवर्णमय हाथवाला । यही भावना पिछले मन्त्र में 'हिरण्यपाणिः' शब्द से व्यक्त हुई है। पाणि शब्द में रक्षा करने की भावना थी तो हस्त शब्द में [हस्तो हन्तेः] नष्ट करने का भाव है। सूर्य अपनी किरणों में विद्यमान स्वर्ण के प्रभाव से हमारे शरीरों की रक्षा करता है और रोगों का नाश करता है। २. (असुरः) = [असून् राति] यह प्राणशक्ति देनेवाला है। प्रश्नोपनिषद् में कहा है कि ('प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य:') = यह सूर्य क्या उदय होता है, प्रजाओं का प्राण ही उदय होता है । ३. (सुनीथः) = सर्वत्र प्रकाश फैलाने के कारण उत्तम मार्गों से ले चलता है। ४. (सुमृडीक:) = उत्तम मार्ग से ले चलकर हमारे जीवनों को उत्तम सुख प्राप्त कराता है। ५. (स्ववान्) = यह उत्तम धनवाला है। स्वास्थ्य ही सर्वोत्तम धन है और उसे प्राप्त कराने में यह सूर्य सर्वमहान् सहायक है। ६. यह सूर्य (यातुधानान्) = शरीर में शतशः पीड़ाओं का आधान करनेवाले (रक्षसः) अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमिरूप राक्षसों को (अपसेधन्) = दूर करता हुआ (अर्वाङ् यातु) = हमें अभिमुखता से प्राप्त हो। हम सूर्याभिमुख होंगे तो रोगकृमियों का संहार होकर हमें स्वास्थ्यरूपी धन की प्राप्ति होगी । ७. उल्लिखित कारणों से ही 'हिरण्यहस्त, असुर, सुनीथ, सुमृडीक व स्ववान्' होने से ही यह (देवः) = दिव्य गुणोंवाला प्रकाशमय सूर्य (प्रतिदोषम्) = प्रतिरात्रि, अर्थात् सदा (गृणान:) = स्तुति किया जाता हुआ (अस्थात्) = ठहरता है, अर्थात् सूर्य के महत्त्व को समझनेवाले लोग सदा सूर्य का स्तवन करते हैं। उसके गुणों का प्रतिदिन स्मरण करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - रोगकृमियों के संहार के लिए प्रात:सायं सूर्याभिमुख होकर ध्यान करना अत्यन्त उपयोगी है।
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