यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 49
ऋषिः - प्राजापत्यो यज्ञ ऋषिः
देवता - ऋषयो देवताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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स॒हस्तो॑माः स॒हच्छ॑न्दसऽआ॒वृतः॑ स॒हप्र॑मा॒ऽऋष॑यः स॒प्त दैव्याः॑।पूर्वे॑षां॒ पन्था॑मनु॒दृश्य॒ धीरा॑ऽअ॒न्वाले॑भिरे र॒थ्यो̫ न र॒श्मीन्॥४९॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्तो॑मा॒ इति॑ स॒हऽस्तो॑माः। स॒हछ॑न्दस॒ इति॑ स॒हऽछ॑न्दसः। आ॒वृत॒ इत्या॒ऽवृतः॑। स॒हप्र॑मा॒ इति॑ स॒हऽप्र॑माः। ऋष॑यः। स॒प्त। दैव्याः॑। पूर्वे॑षाम्। पन्था॑म्। अ॒नु॒दृश्येत्य॑नु॒ऽदृश्य॑। धीराः॑। अ॒न्वाले॑भिर॒ इत्य॑नु॒ऽआले॑भिरे॒। र॒थ्यः᳕। न। र॒श्मीन् ॥४९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्तोमाः सहच्छन्दसऽआवृतः सहप्रमाऽऋषयः सप्त दैव्याः । पूर्वेषाम्पन्थामनुदृश्य धीराऽअन्वालेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सहस्तोमा इति सहऽस्तोमाः। सहछन्दस इति सहऽछन्दसः। आवृत इत्याऽवृतः। सहप्रमा इति सहऽप्रमाः। ऋषयः। सप्त। दैव्याः। पूर्वेषाम्। पन्थाम्। अनुदृश्येत्यनुऽदृश्य। धीराः। अन्वालेभिर इत्यनुऽआलेभिरे। रथ्यः। न। रश्मीन्॥४९॥
विषय - पितर=पूर्वजों का आदर्श जीवन
पदार्थ -
पिछले मन्त्र में वेदाध्येता के लक्षणों में एक लक्षण यह भी था कि वे मान्य - बड़ों का आदर करते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में उन्हीं बड़ों के जीवन का चित्रण है। १. (सहस्तोमा:) = ये स्तोमवाले होते हैं, इनका जीवन प्रभुस्तुति के साथ चलता है। खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते ये सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं। इसी से उन्हें जीवनमार्ग का दर्शन होता है। इस स्तवन से उन्हें विघ्नों व बाधाओं में व्याकुल न होने की शक्ति प्राप्त होती है । २. (सहच्छन्दस:) = ये छन्दोंवाले होते हैं, ये सप्तछन्दोरूप वेदवाणी के ज्ञाता बनते हैं। यह ज्ञानाग्नि वासनाओं का विध्वंस करके इनके कर्मों को पवित्र कर देती है। ३. (आवृतः) = ये आवृत होते हैं। इनके दिन का सारा कार्यकलाप ठीक आवर्तन में चलता है, उतने आवर्तन में, जितने में कि 'सूर्य और चन्द्रमा'। इस कार्यनियमितता से इनका स्वास्थ्य ठीक रहकर इन्हें दीर्घायुष्य प्राप्त होता है। ५. (सहप्रमाः) = प्रमा शब्द का अर्थ है 'प्रकृष्टमाप' । इनका जीवन प्रकृष्टमापवाला होता है। ये प्रत्येक क्रिया को माप-तोलकर करते हैं। सब क्रियाओं में 'युक्तचेष्ट' होते हैं, परिणामतः ये सदा स्वस्थ रहते हैं । ५. (ऋषयः) = 'ऋष गतौ' से बनकर यह शब्द गति की सूचना देता है। ये अपने जीवन में सदा क्रियाशील रहते हैं। इसी कारण ये वासनाओं से आक्रान्त नहीं होते। वासनाओं के शिकार अकर्मण्य पुरुष ही हुआ करते हैं ६. (सप्तदैव्याः) = इनकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि ये सातों दैव्य होते हैं। ये इनसे 'देव' की ओर चल रहे होते हैं। इनसे ये प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, प्रकृति के स्वादों को भोगने नहीं लग जाते। ७. ये (धीराः) = स्थिर वृत्तिवाले ज्ञानी पुरुष (पूर्वेषाम्) = अपनों से पहले के (पन्थाम्) = मार्ग को जीवन यात्रा को (अनुदृश्य) = बारीकी से देखकर (अनु आलेभिरे) = उनके पदचिह्नों पर चलते हुए सर्वतः गुणों को ग्रहण करते हैं। उसी प्रकार (न) = जैसे (रथ्य:) = एक उत्तम रथवाहक (रश्मीन्) = लगामों को जिस प्रकार एक उत्तम सारथि रश्मि - नियमन में नाममात्र भी प्रमाद नहीं करता, उसी प्रकार ये धीर पुरुष भी गुणग्रहण में प्रमादशून्य होते हैं। अपने जीवन को अधिकाधिक गुणों से अलंकृत करते हुए ये सचमुच पितर पदवी को प्राप्त करते हैं। इन पूर्वजों का जीवन हमें भी प्रेरणा देता है और उस प्रेरणा को प्राप्त करके हम भी अपने जीवनों को उदात्त बनाते हैं। लोकहितकारी जीवन होने से ये पितर 'प्राजापत्य'-प्रजा के रक्षक कहलाते हैं और यज्ञमय जीवन होने के कारण 'यज्ञ' नामवाले हो जाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम अपने जीवनों को स्तुतिमय ज्ञानप्रधान, नियमित आवर्तनवाला, मपी-तुली क्रियाओंवाला, गतिमय, दिव्य व महाजनानुगामी बनाने का प्रयत्न करें। इस शरीररूप रथ पर आरूढ़ होकर बागडोर को अपने काबू में रक्खें।
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